बुधवार, 27 जुलाई 2011

खिला गुलमुहर जब कभी

खिला गुलमुहर जब कभी द्वार मेरे
          याद तेरी अचानक मुझे आ गई

किसी वृक्ष पर जो दिखा नाम तेरा
          जिंदगी ने कहा - ज़िंदगी पा गई

आइने ने कभी आँख मारी अगर
           आँख छवि में तुम्हारी ही भरमा गई

चीर कर दुपहरी , छाँह ऐसे घिरी
          चूनरी ज्यों तुम्हारी लहर छा गई.

   ११/११/१९८१.      

4 टिप्‍पणियां:

  1. चीर कर दुपहरी , छाँह ऐसे घिरी
    चूनरी ज्यों तुम्हारी लहर छा गई.


    बहुत खूबसूरत भाव ..अच्छी रचना

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  2. पढ़ते ही लगा था कि यह बीस पच्चीस साल पुरानी कविता होगी! ऐसे भाव तो तभी आ सकते हैं ना :)

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  3. @ संगीता स्वरुप ( गीत )

    सराहना हेतु आभार.

    @ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

    अब मैं क्या कहूँ भला - मैंने तो विधिवत लेखन तिथि घोषित की है. कविता बचकानी लगी क्या?

    पुरानी डायरी जर्जर हो रही है. सोचा, यहाँ लिख कर रख लूँ.

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