रविवार, 25 सितंबर 2011

अंबर की किरणें सतरंगी लेकिन धरती मटियाली है

अंबर की किरणें सतरंगी
लेकिन धरती मटियाली है
दिया बुझ गया उस खोली का
तुमने कंदीलें बाली हैं

पीले फूलों के भीतर से
झाँक सकोगे क्या जीवन तुम
दूर दूर तक मरुथल फैले
यहाँ ज़रा सी हरियाली है

इसी गली के नुक्कड़ पर तो
पंखों को रेहान धर तितली
कहीं पेट भरने की खातिर
सजा रही तन की थाली है

रतिपति ऋतुपति कहीं और जा
मधुऋतु   की बातें कर लेना
हर शंकर की हथेलियों पर
धरी हुई विष की प्याली है

अमलतास संन्यासी सहमा
सरसों का संसार सिहरता
गुलमोहर बंदूक लिए है
हर कीकर लिए दुनाली है

19 /12 /1981  


5 टिप्‍पणियां:

  1. इसी गली के नुक्कड पर तो.... सजा रही तन की थाली... बहुत मार्मिक सर जी॥

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  2. @संगीता स्वरुप ( गीत )
    एवं
    @mridula pradhan
    तथा
    @चंद्रमौलेश्वर प्रसाद,

    गीत के मर्म को पहचानने वाले आप सरीखे मित्रों से ही कुछ लिखने की प्रेरणा मिलती है.
    आभारी हूँ.

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  3. अमलतास सन्यासी सहमा .... हर कीकर लिये दुनाली है ....

    बहुत सुन्दर ....

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