सोमवार, 21 दिसंबर 2009

खसम हमारे की गली, लाल किले के पार।


दोहे : 15 अगस्त

0 सहसा बादल फट गया, जल बरसा घनघोर!
इसी प्रलय की राह में, रोए थे क्या मोर?!

0 चिडिया उडने को चली, छूने को आकाश।
तनी शीश पर काँच की, छत, कैसा अवकाश ?!

0 कहना तो आसान है, "लो, तुम हो आजाद'!
सहना लेकिन कठिन है, "वह' जब हो आजाद!!

0 कटी-फटी आजादियाँ, नुचे-खुचे अधिकार।
तुम कहते जनतंत्र है, मैं कहता धिक्कार!!

0 रहबर! तुझको कह सकूँ, कैसे अपना यार?
तेरे-मेरे बीच में, शीशे की दीवार!!

0 मैं तो मिलने को गई, कर सोलह सिंगार।
बख्तर कसकर आ गया, मेरा कायर यार॥

0 खसम हमारे की गली, लाल किले के पार।
लिए तिरंगा मैं खडी, वह ले कर हथियार॥

0 षष्ठिपूर्ति पर आपसे, मिले खूब उपहार।
लाठी, गोली, हथकडी, नारों की बौछार॥

0 ऐसे तो पहले कभी, नहीं डरे थे आप?
आजादी के दर पडी, किस चुड़ैल की थाप??

0 अपराधी नेता बने, पकडो इनके केश।
जाति धर्म के नाम पर, बाँट रहे ये देश॥

0 कैसा काला पड गया, लोकतंत्र का रंग।
अब ऐसे बरसो पिया, भीजे सारा अंग॥


15 अगस्त, 2007 

2 टिप्‍पणियां:

  1. @ संजय भास्कर

    रचनाओं पर आपकी टिप्पणियों के लिए आभारी हूँ.

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  2. कटी-फटी आजादियाँ, नुचे-खुचे अधिकार।
    तुम कहते जनतंत्र है, मैं कहता धिक्कार!!

    सही कहा है.... ऐसे जनतंत्र को तो धिक्कारा ही जाना चाहिए जहा मक्कार और गुंडे मुख्य मंत्री बने बैठे है॥

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