ऋषभ की कविताएँ
रविवार, 7 नवंबर 2010
और कब तक
मैं लोकतंत्र में विश्वास रखता हूँ
किसी की आज़ादी में कटौती मुझे स्वीकार नहीं
उसे बंदूक चलाने की आज़ादी चाहिए
मेरी खोपड़ी उड़ाने के लिए
मेरे हाथ बँधे हैं, उसके खुले
1 टिप्पणी:
चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
7 नवंबर 2010 को 5:21 am बजे
वह उस नारी जितना सुंदर भी नहीं कि कहते बने...
लड़ते है पर हाथ में तलवार भी नहीं
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वह उस नारी जितना सुंदर भी नहीं कि कहते बने...
जवाब देंहटाएंलड़ते है पर हाथ में तलवार भी नहीं