हर लौ घर की ही दुश्मन है, दीपक जो भी बाले हैं
बाँहों में थिरके है तन पर
मन का पंछी तड़प रहा
होंठ-होंठ मुस्कान धरी पर
शूल आँख में कसक रहा
संबंधों की कौन कहेगा
व्यापारिक अनुबंध हुए!
यहाँ हिमालय के भीतर ही
आतुर लावा दहक रहा
दूध-चांदनी में धुलकर भी, सारे गजरे काले हैं
हर छत पर लटकी चमगादड़, दीवारों पर जाले हैं
विश्वासों की मौन बालिका
दुष्यंतों से छली गई
और इत्र बन जाने खातिर
बिना खिली हर कली गई
शहनाई की आवाजें हैं
सभी दृष्टियाँ सूनी हैं!
किसकी डोली उठी न जाने
किसकी अर्थी चली गई
गाए कौन मल्हार-मर्सिया, शब्द-शब्द पर ताले हैं
हर लौ घर की ही दुश्मन है, दीपक जो भी बाले हैं
28 अक्टूबर 1981
28 अक्टूबर 1981
5 टिप्पणियां:
आदरणीय ॠषभजी, एक-एक शब्द और एक-एक भाव दिल को छूने वाला है। बहुत ही सुन्दर नवगीत है।
नमस्ते सर जी ,
आपकी यह कविता दिल को छूनेवाली है ..बहुत सुंदर कविता
संबंधों की कौन कहे व्यापरिक अनुबंध हुए हैं...
कृपया संबंध बनाए रखिए.. अभी व्यापारिक नहीं हुए है... यदि धूल जमी तो जाले झटक दिए जाएंगी:)
सुंदर मार्मिक कविता के लिए बधाई॥
@ajit gupta
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ.
स्नेह बना रहे.
@ शिवकुमार (शिवा)
टिप्पणी आती है तो इतना यकीन कर लेता हूँ की अपने मेरा पृष्ठ 'देखा' है. खैर....
आपके कथासंग्रह में कितनी देर है?
@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
जी, हमारे पास सच्चे मीत हैं!
इसलिए ही प्राण में संगीत है!!
bahut, bahut,.......dil ko choo gayi....speechless
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