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रविवार, 16 जुलाई 2023

(समीक्षा) अनुवाद का अनुवर्ती मूल! ◆ डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

 



अनुवाद का अनुवर्ती मूल! 

  • डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा



मेरे सामने दो किताबें हैं - 2021 में छपी "In Other Words" और 2023 में छपी "इक्यावन कविताएँ"।  पहली किताब दूसरी का अनुवाद है। लेकिन पुस्तक के रूप में दूसरी बाद में प्रकाशित हुई है। दरअसल 'In Other Words' में कवि ऋषभदेव शर्मा की इक्यावन कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद शामिल है। संपादक और अनुवादक हैं गोपाल शर्मा। इन कविताओं के मूल पाठ से बनी दूसरी किताब के भी संपादक और प्रस्तावना लेखक वही हैं। उनका दावा है कि ये कविताएँ उन्होंने अंग्रेजी कविता-संस्कार वाले पाठकों के मिजाज को ध्यान में रखकर डॉ. ऋषभदेव शर्मा के 7 हिंदी कविता संकलनों में से अपनी रुचि के अनुसार चुनी हैं।  


मेरा भी मानना है कि विषयवस्तु और काव्यभाषा दोनों की दृष्टि से ये कविताएँ ऋषभदेव शर्मा की अन्य कविताओं से कुछ भिन्न या विशिष्ट अवश्य हैं। संग्रह की पहली कविता 'कुत्ता गति',  जिसका अनुवादक ने 'A few lines of Doggerel' शीर्षक से अनुवाद किया है,  इस लिहाज से बिल्कुल सही उदाहरण है - "मुझे तैरना नहीं आता/ पानी भरता चला जाता है/  मेरे मुँह में/ नाक, कान, आँख में/ मेरे भीतर भौंकने लगते हैं/ हजारों कुत्ते एक साथ।/  यही कुत्ता गति होनी थी मेरी/ तो मुझे मानुष-देहक्यों दी थी भला?" 


इस संग्रह में कवि की अति चर्चित कविता "औरतें औरतें नहीं हैं" भी शामिल है, जिसमें कवि ने बहुत गुस्से के साथ कहा है- "जानते हैं वे/ देश नहीं जीते जाते जीत कर भी/ जब तक स्वाभिमान बचा रहे/ इसीलिए/ औरतों के जननांग पर/ फ़हरा दो विजय की पताका/  देश हार जाएगा/  आप से आप।" इसी क्रम में "अश्लील है पौरुष तुम्हारा" भी उल्लेखनीय है।  कवि के अनुसार- "अश्लील है तुम्हारी यह दुनिया/  इसमें प्यार वर्जित है/  और सपने निषिद्ध/  धर्म अश्लील हैं/ घणा सिखाते हैं/ पवित्रता अश्लील है/ हिंसा सिखाती है!"


लंबी कविता "कापालिक बंधु के प्रति" अपने कथात्मक विस्तार, वैचारिक तनाव, विशिष्ट प्रतीक विधान और मिथकीय बिंब गठन के कारण खास तौर पर ध्यान खींचती है-  "तभी निकल कर आया/  पुरानी बोतलों का वह काला जादूगर/ जिसके 'गिली गिली फू' कहकर/  फूँक मारते ही/  खंडित हो जाता है इंद्रधनुष।/ टूट गया इंद्रधनुष/ फैल गया इंद्रजाल।/  अब बादलों की जगह/ तुम्हारे पैरों तले कठोर धरती थी/ मीठे झोंकों की जगह/ यथार्थ की भीषण लू थी/  महमहाती बगिया की जगह/ अगिया बेताल का नाच था।/ ××× गर्म लाल जीभ लपलपाती/  गोरी चमड़ी और नीले खून वाली/  मादकता की इन विषकन्याओं के/ ज़हरीले आलिंगन/ और मरणांतक अधर दंश के साथ/ आरंभ हुई तुम्हारी यह कापालिक घोर अघोर साधना!"


इन कविताओं की काव्य भाषा इस लिहाज से भी विशिष्ट है कि इनमें एक तरफ तो प्रेत, पिशाच, राक्षस,  नर पिशाच, कापालिक और दानव शामिल हैं तथा दूसरी ओर कंगारू, छिपकली, चींटी, मकड़ी, कौआ तथा चमगादड़ भी उपस्थित हैं। इन सबके माध्यम से कवि ने समकालीन जीवन की जटिल सच्चाइयों को सहज रूप में व्यंजित किया है। इन कविताओं में निश्चय ही वैश्विक अपील है जिसे सर्वथा निजी काव्यभाषा के सहारे कवि ने खास तराश दी है। प्रवीण प्रणव के शब्दों में मैं भी यही कहना चाहूँगी कि 

  • "खास तौर पर एक ऐसे वक़्त में जब कविताओं के विषय सिमटते जा रहे हैं और भाषा में एकरूपता आती जा रही है, इन कविताओं को पढ़ना एक सुखद अहसास है।" 


—--//—--/

0 डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-आचार्य, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नै- 600017. 



शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

दर्द की कोकिला बोली

हमारी आह के काँधे, 

तुम्हारी चाह की डोली 

तुम्हारी माँग में, सजनी!

हमारे रक्त की रोली


मिटाए भी न मिट पाईं

तुम्हारे मन की बालू से

हमारी रूप रेखाएँ

बहुत धो ली, बहुत छोली


प्रथम अनुभव, प्रथम छलना 

कठिन अनुभव, कठिन छलना 

लुटी किस चक्रवर्ती से

तापसी बालिका भोली


जान पहचान थी जिससे

उम्र आसान थी जिससे 

छुड़ाकर भीड़ में अँगुली

गया वह दूर हमजोली


सहमकर और शरमाकर

तड़पकर और लहराकर 

'किया है प्यार मैंने तो'

दर्द की कोकिला बोली


#पुरानी_डायरी से

(नई दिल्ली : 7 अगस्त, 1984)

मुझको मेरा गीत चाहिए

मुझको मेरा गीत चाहिए

वही मुक्त संगीत चाहिए


        मेरे मथुरा-ब्रज-वृंदावन

        कालिंदी के तट रहने दो 

        कुरुक्षेत्र मत करो देश को

        यों न रक्त-सरिता बहने दो


रक्तजीवियों के जंगल में 

दूध नहाया मीत चाहिए


        मेरे उषा-सूक्त के गायन 

        मुझको गीता-गायत्री दो

        मेरा गौतम, मेरा गांधी

        मुझको सीता-सावित्री दो


जो विषधर को गंगा कर दे 

शिवशंकर की प्रीत चाहिए


        मत आँगन के बीच उगाओ

        नागफनी के काँटे ज़हरी

        शर संधाने  सिंधु-तीर पर 

        तत्पर मर्यादा के प्रहरी


मेरे नक्शे के त्रिकोण को

फिर से रघुकुल रीत चाहिए 000


#पुरानी_रचना (लखनऊ: 2 जून, 1984)

मंगलवार, 17 जनवरी 2023

तुमको ख़त में क्या-क्या लिक्खूँ?

 तुमको ख़त में क्या-क्या लिक्खूँ?

कब-कब हँस-हँस रोया, लिक्खूँ?


तारे गिन-गिन रातें काटीं

भोर  हुई तो सोया, लिक्खूँ? 


नेह नीर से सींच-सींच कर 

यह अक्षय वट बोया, लिक्खूँ? 


एक फूल रूमाल कढ़ा जो

ओसों खूब भिगोया, लिक्खूँ? 


दिल से दिल के इस सौदे में 

क्या पाया क्या खोया, लिक्खूँ? 


कैसे राम! तिरे वह तल पर 

तुमने जिसे डुबोया, लिक्खूँ?


मधु अपराध किया जो पल ने

वह जन्मों ने ढोया, लिक्खूँ?


अँजुरी-अँजुरी पानी छाना 

फिर भी रेत सँजोया, लिक्खूँ?


साँसों  की नश्वर माला में 

मोती दिव्य पिरोया, लिक्खूँ? 


चमक उठा शुभ नाम तुम्हारा;

मन आँसू से धोया, लिक्खूँ?

                         (2002)

शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

अश्रद्धा

 क्यों, 

आखिर क्यों

मुझे शर्मिंदा होना चाहिए?

मैंने खुद चुनाव किया, इसलिए?

मेरा चुनाव गलत था, इसलिए?

बस इसी से हक़ मिल गया उसे

मेरे 35 टुकड़े करने का?

बस इसी से हक़ मिल गया तुम्हें

मुझे असंस्कारी सिद्ध करने का?


????


और उन हज़ारों का क्या

जिन्हें बाँधा था तुमने संस्कार की साँकल से,

फिर भी जिन्हें हर रात मिले 

केवल ज़हरीले सर्प-परिरंभ,

और निगल गए जिन्हें उन्हीं के देवता

मगरमच्छ बन कर? 000

                 (18/11/2022)

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

3 बाल कविताएँ

 3 बाल कविताएँ 

(रचना काल: 1989/ स्थान:ऊधमपुर) 


(वैसे ये कविताएँ नहीं है। 

नन्हें बेटे के नाम पिता के 3 पत्र हैं। 

1989 की डायरी में दिख गए। बस!)



ह से हनी, द से दादा 

याद बहुत पापा को आता


क से कुमार, ल से लव

पापा बहुत अकेले अब


रक्खी है तेरी तलवार 

ही-मैन बन के राक्षस मार


हनूमान की गदा खड़ी है 

रॉली-पॉली पास पड़ी है


यह जोकर कितना उदास है

सारी बिखरी हुई ताश है


हाथी भी गुमसुम बैठा है 

बन्दर गुस्से से ऐंठा है


ऐरोप्लेन चुप खडा हुआ है

हैलीकोप्टर अड़ा हुआ है


लात मारती है साईकल 

धुआँ उगलती है राईफल


धूल जम गई है खिड़की में 

किसे लगाऊँ अब झिड़की मैं


किसके सिर पर धौल जमाऊँ 

मैं किससे बैठक लगवाऊँ


इक टुकड़ा अब किसे खिलाऊँ

किससे मैं इक टुकड़ा खाऊँ


किसे कहानी कथा सुनाऊँ

किसे हँसाऊँ, किसे रुलाऊँ


किससे कहूँ कि दे दे किस्सी

किससे कहूँ कि ले ले किस्सी


किसको डाँटूँ किससे झगडूँ

किस दाढ़ी से दाढ़ी रगडूँ


मुझको भूल नहीं जाना तुम

सबको खूब हँसाना तुम


तेरी हँसी, हँसी पापा की 

तेरी खुशी, खुशी पापा की


पापा बहुत दूर रहते हैं

पापा बहुत दर्द सहते हैं


पापा जल्दी ही आएँगे!

पापा बहुत प्यार लाएंगे!!


(ऊधमपुर से: अगस्त 1989 )




ग्रीन हरे रंग को कहते है

पापा ऊधमपुर रहते हैं


रेड कलर के माने लाल

मोनू खाता चावल दाल


ब्लैक ब्लैक काला काला

बाबा जी जपते माला


नारंगी होता ओरेंज

सोनू करता कपड़े चेंज


व्हाइट की संज्ञा सफेद है

दादा के दाँत में छेद है


यैलो होता पीला पीला 

बिस्तर को मत करना गीला


आसमान ब्लू है नीला है 

जूता थोड़ा सा ढीला है


ग्रे का अर्थ सलेटी है

दीदी सबकी प्रिय बेटी है


ब्राउन रंग  भूरा होता है

बिट्टू दिन में भी सोता है


वाइलट होता बैंगन जैसा 

रोज़ बैंक में डालो पैसा


माँ से सुनना रोज कहानी

कौन था राजा कौन थी रानी


इस कविता को भूल न जाना 

मम्मी जी को खूब सुनाना


(ऊधमपुर से: अक्टूबर 1989) 




फ्लावर के माने हैं फूल

दादा जाता है इस्कूल


सबको करता नमस्कार जी 

सब करते दादा को प्यार जी


दादा तो सबसे छोटा है 

पर बस्ता कितना मोटा है


कई किताबें हैं बस्ते में 

गिरा नहीं देना रस्ते में


दीदी के संग में जाता है

किंतु अकेला ही आता है


बहुत देर में आती दीदी 

आकर रौब जमाती दीदी


दादा एलकेजी पढ़ता है 

भैया से कुश्ती लड़ता है


माँ के चरण छुआ करता है 

बोतल कंधे पर धरता है


बाबा जी से रोज रुपइया 

लेकर नाचे ता ता थइया


बुला दोस्तों को लाता है

पाप जी से मिलवाता है


स्टेशन साथ साथ आता है 

बाय-बाय करके जाता है


पापा जब वापस आएँगे 

दादा से टुकड़ा खाएँगे


सोनू सारी बात बताए

मोनू मटक मटक कर गाए


दादा बजा बजाकर ताली

लाएगा खाने की थाली


फिर सब एक साथ खाएँगे

फिर सब एक साथ गाएँगे


(ऊधमपुर से: नवंबर 1989)।

गुरुवार, 22 जून 2017

नान्ना! नुव्वु वॆळ्ळिपोयिनप्पट्नुंची / నాన్నా! నువ్వు వెళ్ళిపోయినప్పట్నుంచీ / जब से तुम गए हो, पिता!

नान्ना! नुव्वु वॆळ्ळिपोयिनप्पट्नुंची
======================

नान्ना!
नुव्वु वॆळ्ळिपोयिनप्पट्नुंची
चाला गुर्तॊस्तूने उंदि
पल्लॆलोनि मन इल्लु
आ वेपचॆट्टु
ऎवरू वित्तनं नाटकुंडाने
मॊलिचिंदि मन वाकिट्लो
नी चिन्नप्पुडॆप्पुडो
नीतो पाटे ऎदिगिंदि अदि कूडा.

तात ऒकरोजु
नातो अन्नाडु
\' ई वेपचॆट्टु मी नान्न वयसुदे\' अनि.
आरोजुनुंची
आ चॆट्टु ऎंतो प्रेम चूपिंचसागिंदि नामीद .
नुव्वु इंट्लो लेनप्पुडु
ना चिन्नि वेळ्ळतो
दानि बोदॆनि तडिमि तडिमि चूसेवाण्णि
गरुकुगा उन्न आ बोदॆ मीद 
ना बुग्गनि रासेवाण्णि.
दानि आकुल स्पर्शकि
ना ऒळ्ळु गगुर्पॊडिचेदि,
दानि पळ्ळ तीयदनं
नाकु
नी मुद्दुला हायिगा उंडेदि.

दानि कॊम्मल मीद ऊगेवाण्णि
लावाटि कॊम्मलमीदिकि ऎक्केवाण्णि
निस्संकोचंगा
निर्भयंगा
अवि नी बाहुवुलू
भुजालू अयिनट्टु.
सायंकालं नुव्विंटिकि रागाने
नी ऒळ्ळो निद्रपोतू
कललु कनेवाण्णि
नी वयसे उन्न
आ वेपचॆट्टु गुरिंचि.

कानी ऒकरोजु पल्लॆ वदिलि वॆळ्ळिपोयां
वेपचॆट्टू दूरमैंदि.
नीवॆंट वच्चेशानु पट्नानिकि.
अक्कडे स्थिरपड्डां
कॊत्त इल्लु कट्टुकुन्नां.
कॊन्नाळ्ळु 
अदेपनिगा गुर्तॊच्चेदि
आ वेपचॆट्टु.
कलल्लो कनबडि नन्नु पिलिचेदि.
नॆम्मदि नॆम्मदिगा कललु मसकबारायि,
नॆम्मदि नॆम्मदिगा आ ज्ञापकालु वडिलिपोयायि.
तॆगिपोयिनट्टयिंदि बंधं
पल्लॆतो - आ वेपचॆट्टुतो.
कानी चिन्ननाटि आत्मीयत
अला तॆगिपोदु कदा!
आ निजं नाकु तॆलिसिंदि
नुव्वु ई लोकान्नि वदिलि
केवलं ऒक ज्ञापकंगा मिगिलिपोयिन रोजु.
नी अवशेषालनु गंगानदिलो कलिपि
इंटिकि वच्चाक
ऎंतो ऒंटरिवाडिनयिनट्टनिपिंचिंदि.
ऎवरो नन्नु पिलुस्तुन्नट्टु,
प्रेमगा दग्गरिकि तीसुकुंटुन्नट्टु,
नुदुटिनि मूर्कॊनि
आशीर्वदिस्तुन्नट्टु तोचिंदि.
निन्नु नेलमीद पडुकोबॆट्टिनप्पुडु
नी तल दग्गर चिवरिक्षणाल्लो 
ऒक दीपं वॆलुगुतू उंदि.
नेनु निन्नु पिलुस्तुन्नानु ः
\"रा नान्ना ! रा!
नन्नु पेरु पॆट्टि पिलु,
प्रेमगा दग्गरिकि तीसुकुनि मुद्दुचॆय्यि,
दीविंचु,
ना नुदुटिनि ऒकसारि मूर्कॊनु!!\"

अर्धरात्रि
गदिनिंडा एदो अद्भुतमैन सुवासन .
बागा परिचयमुन्न परिमळंलो
स्नानं चेयसागानु.
अदि नी चॆमट सुवासन
वेपाकुल सुगंधं.
आ सुवसनल्लो निंडा मुनिगिपोसागानु.
मॆलकुव निद्रलो ऒदिगिपोयिंदि
निद्र कलल्लो करिगिपोयिंदि
सुवासन शरीराकृति दाल्चिंदि
ऎन्नो एळ्ळ तरवात
मळ्ळी वच्चिंदि अदे पात कल.
कललो कनिपिंचिंदि
अदे वेपचॆट्टु
विनिपिंचिंदि अदे तात गॊंतु
\' ई वेपचॆट्टु मी नान्न वयसुदे\'
कल चॆदिरिपोयिंदि.
निद्र मेलुकुन्नानु संतोषंगा 
मळ्ळी निन्नु पॊंदिनंत आनंदं.

मर्नाडे
उल्लासं निंदिन मनसुतो
चेरुकुन्नानु पल्लॆकि
नी वयसे उन्न
आ वेपचॆट्टुनि मळ्ळी चूडालनि.
कानी इन्नेळ्ळलो
ऊरु कूडा मारिपोयिंदि मरि.
मारिंदि जीवनशैलि,
नीरू,गाली.
आ इंटि आकारमे मारिपोयिंदि.
आ वेपचॆट्टुनि
इंटि कॊत्त यजमानि
कॊट्टेशाडु ऎन्नाळ्ळक्रितमो!
ईरोजु
अक्कडॊक कर्रलु नरिके मिषनुंदि
सरिग्गा आ चॆट्टु उंडिन चोटे !

नान्ना !
नुव्वु वॆळ्ळिपोयिनप्पट्नुंची
चाला गुर्तॊस्तुन्नायि
पल्लॆलोनि मन इल्लू,
नी वयसे उन्न
आ वेपचॆट्टू!

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हिंदी मूलं   : ऋषभदेव शर्म
तेलुगु अनुवादं  :  आर. शांतसुंदरि

నాన్నా! నువ్వు వెళ్ళిపోయినప్పట్నుంచీ
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నాన్నా!
నువ్వు వెళ్ళిపోయినప్పట్నుంచీ
చాలా గుర్తొస్తూనే ఉంది
పల్లెలోని మన ఇల్లు
వేపచెట్టు
ఎవరూ విత్తనం నాటకుండానే
మొలిచింది మన వాకిట్లో
నీ చిన్నప్పుడెప్పుడో
నీతో పాటే ఎదిగింది అది కూడా.

తాత ఒకరోజు
నాతో అన్నాడు
' వేపచెట్టు మీ నాన్న వయసుదే' అని.
ఆరోజునుంచీ
చెట్టు ఎంతో ప్రేమ చూపించసాగింది నామీద .
నువ్వు ఇంట్లో లేనప్పుడు
నా చిన్ని వేళ్ళతో
దాని బోదెని తడిమి తడిమి చూసేవాణ్ణి
గరుకుగా ఉన్న బోదె మీద
నా బుగ్గని రాసేవాణ్ణి.
దాని ఆకుల స్పర్శకి
నా ఒళ్ళు గగుర్పొడిచేది,
దాని పళ్ళ తీయదనం
నాకు
నీ ముద్దులా హాయిగా ఉండేది.

దాని కొమ్మల మీద ఊగేవాణ్ణి
లావాటి కొమ్మలమీదికి ఎక్కేవాణ్ణి
నిస్సంకోచంగా
నిర్భయంగా
అవి నీ బాహువులూ
భుజాలూ అయినట్టు.
సాయంకాలం నువ్వింటికి రాగానే
నీ ఒళ్ళో నిద్రపోతూ
కలలు కనేవాణ్ణి
నీ వయసే ఉన్న
వేపచెట్టు గురించి.

కానీ ఒకరోజు పల్లె వదిలి వెళ్ళిపోయాం
వేపచెట్టూ దూరమైంది.
నీవెంట వచ్చేశాను పట్నానికి.
అక్కడే స్థిరపడ్డాం
కొత్త ఇల్లు కట్టుకున్నాం.
కొన్నాళ్ళు
అదేపనిగా గుర్తొచ్చేది
వేపచెట్టు.
కలల్లో కనబడి నన్ను పిలిచేది.
నెమ్మది నెమ్మదిగా కలలు మసకబారాయి,
నెమ్మది నెమ్మదిగా జ్ఞాపకాలు వడిలిపోయాయి.
తెగిపోయినట్టయింది బంధం
పల్లెతో - వేపచెట్టుతో.
కానీ చిన్ననాటి ఆత్మీయత
అలా తెగిపోదు కదా!
నిజం నాకు తెలిసింది
నువ్వు లోకాన్ని వదిలి
కేవలం ఒక జ్ఞాపకంగా మిగిలిపోయిన రోజు.
నీ అవశేషాలను గంగానదిలో కలిపి
ఇంటికి వచ్చాక
ఎంతో ఒంటరివాడినయినట్టనిపించింది.
ఎవరో నన్ను పిలుస్తున్నట్టు,
ప్రేమగా దగ్గరికి తీసుకుంటున్నట్టు,
నుదుటిని మూర్కొని
ఆశీర్వదిస్తున్నట్టు తోచింది.
నిన్ను నేలమీద పడుకోబెట్టినప్పుడు
నీ తల దగ్గర చివరిక్షణాల్లో
ఒక దీపం వెలుగుతూ ఉంది.
నేను నిన్ను పిలుస్తున్నాను
"రా నాన్నా ! రా!
నన్ను పేరు పెట్టి పిలు,
ప్రేమగా దగ్గరికి తీసుకుని ముద్దుచెయ్యి,
దీవించు,
నా నుదుటిని ఒకసారి మూర్కొను!!"

అర్ధరాత్రి
గదినిండా ఏదో అద్భుతమైన సువాసన .
బాగా పరిచయమున్న పరిమళంలో
స్నానం చేయసాగాను.
అది నీ చెమట సువాసన
వేపాకుల సుగంధం.
సువసనల్లో నిండా మునిగిపోసాగాను.
మెలకువ నిద్రలో ఒదిగిపోయింది
నిద్ర కలల్లో కరిగిపోయింది
సువాసన శరీరాకృతి దాల్చింది
ఎన్నో ఏళ్ళ తరవాత
మళ్ళీ వచ్చింది అదే పాత కల.
కలలో కనిపించింది
అదే వేపచెట్టు
వినిపించింది అదే తాత గొంతు
' వేపచెట్టు మీ నాన్న వయసుదే'
కల చెదిరిపోయింది.
నిద్ర మేలుకున్నాను సంతోషంగా
మళ్ళీ నిన్ను పొందినంత ఆనందం.

మర్నాడే
ఉల్లాసం నిందిన మనసుతో
చేరుకున్నాను పల్లెకి
నీ వయసే ఉన్న
వేపచెట్టుని మళ్ళీ చూడాలని.
కానీ ఇన్నేళ్ళలో
ఊరు కూడా మారిపోయింది మరి.
మారింది జీవనశైలి,
నీరూ,గాలీ.
ఇంటి ఆకారమే మారిపోయింది.
వేపచెట్టుని
ఇంటి కొత్త యజమాని
కొట్టేశాడు ఎన్నాళ్ళక్రితమో!
ఈరోజు
అక్కడొక కర్రలు నరికే మిషనుంది
సరిగ్గా చెట్టు ఉండిన చోటే !

నాన్నా !
నువ్వు వెళ్ళిపోయినప్పట్నుంచీ
చాలా గుర్తొస్తున్నాయి
పల్లెలోని మన ఇల్లూ,
నీ వయసే ఉన్న
వేపచెట్టూ!

***********

హిందీ మూలం : రిషభదేవ్ శర్మ
అనువాదం  :  ఆర్.శాంతసుందరి

जब से तुम गए हो, पिता!================


पित:!
जब से तुम गए हो
बहुत याद आता है
गाँव वाले अपने घर का
वह नीम,
जो बिना बोए ही
उग आया था आँगन में
कभी तुम्हारे बचपन में
और तुम्हारे साथ-साथ जवान हुआ था।
बाबा ने एक दिन
बताया था मुझे
‘यह नीम तेरे पिता की उमर का है।’
उस दिन से
बड़ा प्यार मिलने लगा
मुझे
उस नीम से।
जब तुम घर में नहीं होते थे
मैं अपनी नन्हीं उँगलियों से
उसका तना छू-छूकर देखता था,
अपना गाल रगड़ता था
उसकी छाल पर।
उसकी पत्तियों का स्पर्श
मुझे रोमांचित कर देता था,
उसकी निंबोलियों की मिठास
मुझे
तुम्हारे चुंबनों का
सुख देती थी।
मैं उसकी शाखों पर झूलता था,
चढ़ जाता था डालों पर
निर्द्वंद्व
निर्भय
जैसे वे तुम्हारी भुजाएँ हों,
तुम्हारे कंधे हों।
साँझ ढले जब लौट आते थे तुम,
तुम्हारी गोद में सोता हुआ मैं
सपने देखता था
उसी नीम के
जो तुम्हारी उमर का था।
पर एक दिन छूट गया गाँव,
छूट गया नीम।
तुम्हारे साथ
आ गया मैं शहर में।
बस गए वहीं हम
नया घर बना लिया।
कुछ दिन
बहुत याद आया
वह नीम।
सपनों में पुकारता था मुझे
वही गाँव के घर का नीम
जो तुम्हारी उमर का था।
धीरे धीरे
वह पुकार
दूर होती गई,
धीरे धीरे वे सपने धुँधला गए,
धीरे धीरे वे यादें कुम्हला गईं।
टूट गया नाता ही जैसे
गाँव से,
नीम से।
पर टूटता कहाँ है नाता
बचपन के नेह का?
इस सच को
उस दिन जाना मैंने
जब तुम
सचमुच स्मृतिशेष हो गए।
तुम्हारे अवशेष
गंगा को अर्पण करके
घर जब मैं लौटा तो
बेहद अकेला था।
लगता था जैसे पुकारता है कोई,
दुलारता है कोई,
देता है आशीष
सूँघ कर माथे को।
तुम्हारी भूमिशय्या के सिरहाने-
जहाँ अंतिम समय तुम्हारा शीश था,
दीपक जल रहा था।
और मैं आवाहन कर रहा था तुम्हाराः
"आओ, पित:! आओ!
पुकारो मुझे,
दुलारो मुझे,
आशीषो,
सूँघो मेरे माथ को!!"
और
आधी रात में
भर उठा कमरा
एक अनूठी गंध से।
मैं नहाने लगा
एक परिचित महक में।
महक तुम्हारे पसीने की,
महक नीम की पत्तियों की।
डूबता चला गया उसी में मैं।
जागरण नींद में खो गया
नींद स्वप्न में विलीन हो गई
महक ने पहन लिया
देह का बाना
बरसों बाद
दीखा वही सपना पुराना।
सपने में आया
वही नीम का पेड़
और सुन पड़ा वही
बाबा का स्वर
‘यह नीम तेरे पिता की उमर का है।’
सपना टूट गया।
मैं जगा तो प्रफुल्लित था
जैसे फिर से पा लिया हो तुम्हें।
अगले ही दिन
उल्लास से भरा हुआ
पहुँचा मैं गाँव में
दर्शन करने को उसी नीम के
जो तुम्हारी उमर का था।
लेकिन
इतने वर्षों में
गाँव भी तो बदल गया था।
बदल गय था
रहन-सहन,
हवा और पानी।
बदल चुका था उस घर का नक्शा।
उस नीम के पेड़ को
घर के नए मालिक
काट चुके थे
जाने कब का!
आज
लकडी़ चीरने की एक मशीन खड़ी थी
ठीक उसी जगह
जहाँ कभी खड़ा था
वह नीम
जो तुम्हारी उमर का था!
पिता,
जबसे तुम गए हो,
बहुत याद आता है
गाँव वाले अपने घर का
वह नीम
जो तुम्हारी उमर का था!  

-ऋषभ देव शर्मा
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