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सोमवार, 22 जुलाई 2013

लोकनिद्रा

अरी ओ चिरैया!
ज़रा उषा की अगवानी के गीत तो गाओ.
                              जनता को जगाना है

अरी ओ कलियो!
ज़रा चटक कर खुशबू बिखेरो न
                              जनता को जगाना है

अजी ओ सूरज दादा!
जमे हिम खंड पिघला दो अपनी धूप से
                              जनता को जगाना है

अरी ओ हवाओ!
सहलाओ मत, जोर से हिलाओ, झकझोरो
                              जनता को जगाना है

अरे ओ बादलो!
उमडो घुमडो गरजो बरसो, बिजली चमकाओ
                              जनता को जगाना है


अरी ओ धरती!
फट नहीं पड़ना!  थोड़ा और धीर धरो!!
                              जनता जाग रही है!!!



विस्मरण

वह खाली आँखों से मुझे देख रही थी निर्निमेष
पहचानने की कोशिश करती हुई

मैंने अपनी पहचान बताई
वह सुन न सकी,
दोनों कानों के परदे ध्वस्त हो चुके थे

मैं पास जा बैठा सटकर
उसकी उँगलियाँ सहलाईं
गाल छुए
वह वैसे ही देखती रही - कोई पहचान नहीं!
मुझे देख रही थी या मेरे पार; आज तक पता नहीं

मैंने उसकी गोद में सिर रख दिया
दुनिया की सबसे गरम सेज अभी ठंडी नहीं हुई थी!
मैंने धीरे से पुकारा - माँ....
उसकी पुतलियाँ घूमीं - स्मृति लौट रही थी!
उसने होंठ खोले - आवाज़ जा चुकी थी!

कडुआती आँखें मींच लीं मैंने आँसू गटकने को
अहह! उसने मेरे बालों में उँगलियाँ फिराईं ;
मैंने आँखें खोलीं - वह मुझे पहचान रही थी!
आँखों में आँखें डाल कर मैंने काँपते स्वर में कहा - माँ, राम राम;
माँ के होंठ फडफडाए- जीभ नहीं उठी
आवाज़ नहीं निकली - पर असीसती उँगलियाँ बोल रही थीं

माँ अंतिम क्षण की प्रतीक्षा में थी
मुझे ट्रेन पकडनी थी!



रविवार, 21 जुलाई 2013

गलगोड्डा[1]

कई बरस पहले हमारे पुरखे
इस गाँव में ले आए थे
एक विचित्र प्राणी

कहने को चौपाया
पर थीं तीन ही टांगें – तीनों घायल,
चौथी टांग अदृश्य

घिसट घिसट कर चलता
मौके बेमौके सींग और पूँछ चलाता
जोर से डकारता

हमने उसके गले में भ्रष्टाचार की ईंटें बाँध दी हैं
अदृश्य टांग की जगह रोप दिया है ऐरावत का घंटा
अब वह चलता नहीं खड़ा खड़ा हिलता है  






[1] . चंचल पशुओं के गले में बाँधा जाने वाला गति-अवरोधक पत्थर, पाया अथवा खूंटा.



क्षणिक

इंद्र के वज्र सा मेरा अस्तित्व

अभी कौंधा
और
लो, विलीन हो चला

पलक झपकते हो गई प्रलय