नीम की ओट में जो कई खेल खेले
चुभे पाँव में शूल बनकर बहुत दिन.
वासना के युवा पाहुने जो कुँवारे
बसे प्राण में भूल बनकर बहुत दिन.
चुंबनों के नखों के उगे चिह्न सारे
खिले देह में फूल बन कर बहुत दिन
स्वप्न वे सब सलोने कसम वायदे वे
उड़े राह में धूल बन कर बहुत दिन.
११/११/१९८१
4 टिप्पणियां:
स्वप्न वे सब सलोने कसम वायदे वे
उड़े राह में धुल बनकर बहुत दिन !
सच में लाजवाब ........
हाय! कहां गए वो दिण॥ नीम पर आपकी नीम और पिताजी वाली कविता याद आ गई॥
@ Suman
धन्यवाद सुमन जी.
@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
बेशक नीम मेरी अन्तश्चेतना में कहीं गहरे धँसा हुआ है. इसलिए अनेक प्रिय कल्पनाओं का आस्थान भी है.
बहुत खूब ..बहुत सुन्दर
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