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बुधवार, 12 सितंबर 2012

जिजीविषा

पंख जल गए, विवश पखेरू फिर भी खिसक रहा है
इच्छाएँ गिर गईं, प्राण पर अब भी सिसक रहा है
देह जूझती है अंतिम रण साँस-साँस तिल-तिल भर
रोम-रोम में धँसा केकड़े का नख कसक रहा है

12/9/2012 : 22-45.

1 टिप्पणी:

Vinita Sharma ने कहा…


ब्दों में म्रत्यु पूर्व का ऐसा दर्दनाक द्रश्य जो चित्रित हो सके,देखा पड़ा नहीं .द्रष्टा तो हैं ही प्रस्तुतीकरण ने भोगने का काल्पनिक

संयोग भी जुटा दिया क्या लगता होगा .

जिसका न और छोर आकाशी वेदना ,प्राण हींन प्राणों में अटकी सी चेतना