१.
''रूप रश्मियों से नहलाकर
मन की गाँठें खोल
यौवन की वेदी पर अर्पित
क्वाँरा हृदय अमोल
प्राणों पर चुंबन अंकित हों
जीवन में रस घोल!''
''दीवारों के कान सजग हैं
धीरे धीरे बोल!!''
२.
नभ के शब्द, धरा का सौरभ
हमको छुआ करें
दुग्ध स्नात हर मधुरजनी हो
मिल कर दुआ करें
चाँदी सी किरणें छू छू कर
मनसिज युवा करें
दीवारों के कान सजग हैं!
होते! हुआ करें!!
३.
नहीं द्वार पर धूप थिरकती
और सूर्य का भान नहीं
कमरे कमरे में सीलन है
दिवा रात्रि का ज्ञान नहीं
दीवारों के कान सजग हैं
और रोशनी डरी हुई!
ऐसे घर में कौन रहेगा
जिसमें रोशनदान नहीं?
''रूप रश्मियों से नहलाकर
मन की गाँठें खोल
यौवन की वेदी पर अर्पित
क्वाँरा हृदय अमोल
प्राणों पर चुंबन अंकित हों
जीवन में रस घोल!''
''दीवारों के कान सजग हैं
धीरे धीरे बोल!!''
२.
नभ के शब्द, धरा का सौरभ
हमको छुआ करें
दुग्ध स्नात हर मधुरजनी हो
मिल कर दुआ करें
चाँदी सी किरणें छू छू कर
मनसिज युवा करें
दीवारों के कान सजग हैं!
होते! हुआ करें!!
३.
नहीं द्वार पर धूप थिरकती
और सूर्य का भान नहीं
कमरे कमरे में सीलन है
दिवा रात्रि का ज्ञान नहीं
दीवारों के कान सजग हैं
और रोशनी डरी हुई!
ऐसे घर में कौन रहेगा
जिसमें रोशनदान नहीं?
22 नवम्बर 1981
3 टिप्पणियां:
ह्रदय को झंकृत करती रचना .
दिवारों के कान सजग है.... लगता है इमेरजेंसी लगी हुई है और फोन टैपिंग चल रही है॥ धीरे धीरे बोल... का सुंदर प्रयोग। बधाई सर जी॥
bahut sunder.......
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