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गुरुवार, 5 जनवरी 2017

जल ही जीवन

गोमुख से चला तो कितना स्वच्छ था मैं
पुण्य फल का प्रतीक
पवित्रतम
सौभाग्य से परिपूर्ण!

और फिर बीच राह में
वे सब मिले एक के बाद एक
मेरी पहचान मिटाने को आतुर
जाने कितने नाले-पनाले
त्रिशंकु की लार से उपजी कर्मनाशा सरीखे!!

...अब मैं वैतरणी का कुंड हूँ
दुर्भाग्य से दबा
बदबू से भरा
दिव्यता का ऐसा घृणित परिणाम
सोचा न था!!!

आज भी तुम कहते हो
मेरी ही नाभि में है
अपराजेय सुगंध की शाश्वत झील?
                       
3.1. 2017.............................

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