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गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

कट रहे हैं हाथ मेरे

आँख पर पट्टी बँधी है, काटता है विश्व फेरी!

उड़ रहा तो है कबूतर, पाँव में धागे बँधे हैं.
आँख ताके है शिकारी , कर गुलेलों के सधे हैं.
हैं धरी गिरवी तुम्ही पर सब उड़ानें हाय मेरी!

होंठ मेरे खुद सिलाकर, कान अपने खोलते हो.
जब युधिष्ठिर सत्य बोले, शोर नभ में घोलते हो.
द्रोण विश्वासी हुआ है, छल रही है नीति तेरी!

कट रहे हैं हाथ मेरे, लेखनी फिर फिर उठाते.
क़त्ल कर वे बच रहे हैं, जो तुम्हें सिज़्दे झुकाते.
हो न पाएगी उषा तो, पर तिमिर की क्रीत चेरी!

16 /10 /1981 .  

5 टिप्‍पणियां:

शिवा ने कहा…

नमस्ते सर जी ,
कविता अच्छी है

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

'द्रोण विश्वासी हुआ है, छल रही है नीति तेरी ,

भावपूर्ण रचना....

राधा कृष्ण मिरियाला ने कहा…

नमस्ते सर जी !
"कट रहें है हाथ मेरे"
लेकिन हम तड़प रहें है आप की कविता केलिए ....
द्रोण विश्वासी हुवा है ,छल रही है नीति तेरी !
सुन्दर भावुकाता को प्रकट किया है आपने ...धन्यवाद जी !
आप के मार्गदर्शन में हम आगे बढेंगे .
(सच में आप की कविताओं के जगत में पढनेवाले हम सब कबूतर की जैसे आनंद उत्साहों के साथ शिकार करके आते है)
बहुत बहुत धन्यवाद जी !!!
आप का प्रिय छात्र .....

VIVEK VK JAIN ने कहा…

bahut hi achhi kavita......

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

ये मज़लूम मखलूक़ गर सर उठाए
तो इंसां सब सरकशी भूल जाए
कोई इनको अहसासे-ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे॥
..........फ़ैज़