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शनिवार, 3 जून 2017

अप्पुडु नुव्वॆक्कडुन्नावु? ('तब तुम कहाँ थे?')


अप्पुडु नुव्वॆक्कडुन्नावु?

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हिंदी मूलं -रिषभदेव् शर्म
तेलुगु अनुवादं - आर्.शांतसुंदरि

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उन्न पौरुषान्नंता कूडगट्टुकुनि
देशमंता पोराडुतुन्नप्पुडु
रात्रनक
पगलनक
कॊत्त कॊत्त युद्ध स्थावराल्लो
कास्त चॆप्पवा मित्रमा
नुव्वप्पुडु ऎक्कड उन्नावो?
ऎक्कड उन्नावु नुव्वु?

पर्वतश्रेणुल्लोनि हिमनदालु
पेलुळ्ळकि गजगज वणिकिपोतू उंटे
धवळ शिखरालकि नवयुवकुलैन जवान्लु
अभिषेकं चेस्तुन्नारु तम ऎर्रनि वॆच्चटि नॆत्तुरुतो
मुव्वनॆ जॆंडा ऎगुरवेस्तुन्नारु
मंचु कप्पिन
स्वर्णिम गुहल शिरस्सु मीद
तम मट्टि बंडिनि 
मट्टिलो कलिपेसि.
आकाशं नुंचि कुरिसे अग्निनि भरिंचारु
तम छातील मीद.
विमानालु कालिपोयिना
कूलिपोनिव्वलेदु तम धैर्य साहसालनि .
मृत्युवु कूडा मळ्ळिपोयिंदि वाळ्ळकि नमस्करिंचि;
अग्निलोनुंचि पुनीतुलै वच्चारु
मृत्युंजय पक्षुल्ला भरतमात बिड्डलु.
चिवरिकि आ निंदितुल सिरस्सुलु कूडा
उरिकंबालु तमकोसं ऎदुरुचूस्तुन्नयनि तॆलिसी
वच्चि चेरायि ई आत्माभिमानपु युद्धंलो
गौरवं पॊंदायि प्राणालर्पिंचि.
पॆरिगिंदि रक्तदानं चॆसेवाळ्ळ संख्य 
रात्रनक
पगलनक
कॊत्त कॊत्त युद्ध स्थावराललो.
कास्त चॆप्पवा मित्रमा
अप्पुडु नुव्वॆक्कड उन्नावो?
चॆप्पु मित्रमा
ऎक्कडुन्नावु नुव्वु?

युद्धं !
केवलं सरिहद्दुल वद्दे जरगलेदु.
नुव्वु चदिविन, विन्न वार्तल्लो
कॊन्नि ऎत्तैन शिखराल पेर्लु मात्रमे उन्नायि.
युद्धं जरिगिंदि
देशमंतटा
ऒक्कॊक्क ग्रामंलोनू
प्रति वीधिलोनू 
बलैन अमरुल
ऒक्कॊक्क रक्तं बॊट्टुतो बाटु
अमरत्वं पॊंदायि
आ वीरुलनि कन्न मातृमूर्तुल मृत्युंजय स्तन्यं,
तीयनि तेनॆलांटि अक्क चॆल्लॆळ्ळ आप्यायत,
नववधुवुलु,प्रोषित भर्तृकल 
मधुपर्कालू, नगल अलंकारालू.
प्रति रक्तपु बॊट्टुतोनू
अमरत्वान्नि पॊंदायि
कॊन्नि वेल कन्नीटि चुक्कलु कूडा
प्रति रात्री
प्रति रोजू
कॊत्त कॊत्त युद्ध स्थावराल्लो.
कास्त चॆप्पु आ समयंलो नुव्वॆक्कडुनावो?
इंका गर्भंलोने उन्न शिशुवुलु 
तम तंड्रुलनि इच्चिवेशारु,
अंपशय्यल मीद पडुकुन्न तंड्रुलु
दानं चेशारु तम कुमारुलनि;
मगपिल्ललु तम पोकॆट् मनी इच्चारु,
आडपिल्ललु कललनिच्चेशारु;
कॊज्जालु सैतं विजयं लभिंचालनि प्रार्थिंचारु;
चिवरिकि बिच्चगाळ्ळु कूडा बोर्लिंचारु तम संचुलनि.
कवुलु पदालनि दानमिच्चारु,
श्रमजीवुलु चॆमट चुक्कल्नि समर्पिंचारु.
दिक्कुलेनि दीनुलु कूडा 
गॊंतुलु कलिपारु ऐकमत्यंगा उंडालनि.
नेला निंगी 
आ प्रार्थनलनि प्रतिध्वनिंचायि
प्रति रात्री
प्रति दिनमू
कॊत्त कॊत्त युद्ध स्थावराल्लो.
इप्पुडु चॆप्पु मित्रमा
नुव्वप्पुडु ऎक्कडुन्नावो?

रक्तं चिंदिंचिन वारिलोना?
कन्नीरु मुन्नीरयिन वारिलोना?
लेक चॆमट धारबोसिन वारिलोना?
बहुशा इंकॆक्कडो उंडिउंटावु !
अयिते मरि चरित्र निन्नु छीकॊट्टक मानदु !!!

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भारत सैन्यं पोराडटानिकि सरिहद्दुकि वॆळ्ळिन प्रतिसारी अनुमानं व्यक्तं चेसे विकृत मानसिक प्रवृत्ति गल ऒक्कॊक्क\'माहात्मुडिनी\' कालर् पट्टुकुनि,\"अप्पुडु नुव्वॆक्कडुन्नावु?\" अनि अडगालनिपिस्तुंदि.कार्गिल् युद्धं जरुगुतुन्नप्पुडु रासिन ऒक पात कवित मी कोसं-
रिशभदेव् शर्म.




भारतीय सेना के प्रत्येक अभियान पर संदेह से ग्रस्त रहने की विकृत मानसिकता वाली एक-एक 'महान आत्मा' का कॉलर खींचकर पूछने की इच्छा होती है - तुम 'तब' कहाँ थे?
प्रस्तुत है एक पुरानी कविता।
तब तुम कहाँ थे? 
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-ऋषभ देव शर्मा
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जूझ रहा था जिस समय पूरा देश
समूचे पौरुष के साथ
हर रात
हर दिन
नए-नए मोर्चों पर ;
बताओ तो सही
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
कहाँ थे?
पर्वतमालाओं के हिमनद
काँप-काँप जाते थे विस्फोटों से,
श्वेत शिखरों का अभिषेक कर रहे थे
उठती उम्र के जवान
अपने गर्म लाल लहू से
और फहरा रहे थे तिरंगा
बर्फ से आच्छादित
हिरण्यमय गुफाओं के भाल पर,
अपनी मिट्टी की गाडी़ को
मिट्टी मे मिलाकर।
झेल रहे थे वे आसमान से बरसती आग
अपनी छातियों पर।
जल गए विमान
पर जलने नहीं दिया
उन्होंने अपना हौसला।
लौट गई मृत्यु भी करके प्रणाम उन्हें;
निखर आए आग में से
मरजीवा पंछियों-से भारत माँ के बेटे।
वे लांछित शीश तक भी
शामिल थे अस्मिता के इस युद्ध में
जिनकी प्रतीक्षा में था फाँसी का फंदा;
हो गए गौरवान्वित वे सभी।
लंबी परंपरा दिखाई दी
रक्तदान करने वालों की
हर रात
हर दिन
नए-नए मोर्चों पर।
बताओ तो सही,
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
युद्ध!
केवल सीमा पर नहीं था।
तुमने जो पढ़े-सुने खबरों में, वे
-तो नाम भर थे कुछ ऊँचे शिखरों के।
युद्ध तो लडा़ जा रहा था
देश भर में
गाँव-गाँव, गली-गली;
और शहीद हो रहा था
खून के हर कतरे के साथ
वीर प्रसू जननियों का मृत्युंजय दुग्ध,
मिसरी सी बहनों का शहदीला प्यार,
दूधों-नहाई प्रोषितपतिका वधुओं का
लाल जोड़े और हरी चूड़ियों का सिंगार।
शहीद हो रहे थे खून के हर कतरे के साथ
हज़ार-हज़ार आँसू भी
हर रात
हर दिन
नए-नए मोर्चों पर।
बताओ तो सही?
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
गर्भस्थ शिशुओं ने
अपने पिता दे दिए,
शरशय्या पर सोए पिताओं ने
दे दिए अपने पुत्र ;
बच्चों ने अपना जेबखर्च दे दिया,
बच्चियों ने अपने सपने दिए ;
हिजड़ों तक ने कीं फतह की दुआएँ;
भिखारियों ने भी उलट दीं झोलियाँ।
कवियों ने शब्द दिए,
मज़दूरों ने पसीना।
उखड़े और उजड़े हुओं ने भी
मिलकर दी एकता की आवाज़।
धरती और आकाश ने
गुंजारित कीं प्रार्थनाएँ
हर रात
हर दिन
नए-नए मोर्चों पर।
बताओ तो सही
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
खून बहाने वालों में?
आँसू लुटाने वालों में?
या पसीना सींचने वालों में?
शायद कहीं और थे तुम?
तब तो इतिहास तुम्हें धिक्कारेगा!!0
-ऋषभ देव शर्मा
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