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इक अप्पुडु भूमि कंपिस्तुंदि **************************************** ( ऋषभ देव शर्मा की हिंदी कविता “और तब धरती हिलती है” का आर. शांता सुंदरी कृत तेलुगु अनुवाद) ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^ चिन्नप्पुडु विन्न माटः भूमि गोमात कॊम्मुमीद आनि उंदनी बरुवु वल्ल ऒक कॊम्मु अलसिपोते गोमात रॆंडो कॊम्मुकि मार्चुकुंटुंदनी अप्पुडु भूमि कंपिस्तुंदननी . ऒकसारि ऎक्कडो चदिवानु: ब्रह्मांडमैन ताबेलु मूपु मीद भूमि आनि उंटुंदनी वीपु दुरद पॆट्टिनप्पुडु ऎप्पुडैना आ ताबेलु कदिलिते भूमि कंपिस्तुंदनी. तरवातॆप्पुडो ऒक पौराणिक नाटकंलो चूशानु: वेयिपडगल शेषनागु भूमिनि मोस्तोंदनी, कालं नागस्वरं ऊदिते आ सर्पं तोक आडुतुंदनी वेयिपडगलू ऊगुतायनी अप्पुडु भूमि कंपिस्तुंदनी. भूगर्भ शास्त्रवेत्तलु चॆप्पारु: भूमि कडुपुलो अंतटा प्लेट्लु उंटायनी अवन्नी वरसलुगा पेर्चि उटायनी ऒक प्लेटु जारिंदंटे मरॊकटि कदुलुतुंदनी अप्पुडु भूमि कम्पिस्तुंदनी. अर्थशास्त्र ग्रंथालु तॆलियजेस्तायि: मनिषि नियमालनि अतिक्रमिस्ते प्रकृति ऎदुरु तिरुगुतुंदनी अप्पुडु भूमि कंपिस्तुंदनी. मतान्नि गुत्तकु तीसुकुन्नवाळ्ळु प्रकटिंचारु: धर्मानिकि हानि कलिगिनप्पुडल्ला अधर्मं पॆरिगिपोयिनप्पुडल्ला अन्यायं,अत्याचारं पॆरिगिपोतायनी अप्पुडु भूमि कम्पिस्तुंदनी. भूमि कंपिस्तुंदि पगुळ्ळु एर्पडतायि पदेसि अंतस्तुलू मट्टिलो कलिसिपोतायि कॊन्नि वेल पूरिपाकलु भूगर्भंलो कलिसिपोतायि. गोमात कॊम्मुलु गुच्चुकुनि स्कूलु पिल्लल पेगुलु छिद्रमौतायि. ताबेटि डिप्पमीद पडि रक्तसिक्तमौतायि गर्भवतुलु तम कडुपुलो निंपुकुन्न कॊत्त जीवितपु आशलु. आदिशेषुडि विषपु काटुकि नीलंगा मारिपोतुंदि पॊलाल्लोनू कर्मागाराल्लोनू पनिचेसे वाळ्ळ नॆत्तुरु. प्लेट्लला विरिगिपोतायि मेडलु गायालतो छिद्रमैपोतुंदि ई पच्चनि नेल देहं. नल्लनि नीडलांटि मृत्युवु परिकॆत्तुतूने उंदि अनुक्षणं अन्निवैपुलनुंची चुट्टुमुडुतू मनिषि प्राणालनि. इन्नि रकाल मृत्युवु मनिषेमो ऒक्कडे. सृष्टि प्रारंभमैनप्पटि नुंची ई परुगु वॆंट वस्तूने उंदि विलीनं चेस्तूने उन्नायि नागरिकतलनि भूकंपालु अट्टहासं चेस्तूने उन्नाडु कालभैरवुडु तांडवनृत्यं चेस्तू कानी प्रतिसारी ऎक्कडो ऒकचोट कूलिन शिथिलाल मध्य कदुलुतुंदि ऒक चॆय्यि पैकि लेस्तायि ऐदु वेळ्ळु ऊपिरि पीलुस्तू अन्नि शिथिलालनी चील्चुकुनि सवालु चेस्तू ! *** मूलं : ऋषभ देव शर्मा अनुवादं : आर. शांता सुंदरी |
'''''''’''''''''''''’''''''''''''''''''' और तब धरती हिलती है! ******************** - ऋषभ देव शर्मा ``````````````````` सुना था बचपन में : धरती टिकी है गौमाता के सींग पर, जब बोझ से थक जाता है एक सींग तो गौमाता सींग बदलती है और तब धरती हिलती है। एक बार कहीं पढा़ था : भीमकाय कछुए की पीठ पर टिका है धरती का गोला, कभी-कभार जब हरकत करता है कछुआ पीठ में खुजली होने पर तो धरती हिलती है। बाद में देखा किसी पौराणिक नाटक में : हज़ार फणवाले शेषनाग ने धारण किया है धरती को, काल की बीन बजती है तो थिरकती है शेषनाग की पूँछ झूमते हैं हज़ार फण और तब धरती हिलती है। भू-गर्भ के जानकारों ने बताया : धरती के पेट में हैं प्लेटें ही प्लेटें पर्त दर पर्त कोई पर्त खिसकती है कोई प्लेट सरकती है तो धरती हिलती है। अर्थशास्त्र की किताब कहती है : जब मनुष्य ज्यादती करता है तो प्रकृति विद्रोह करती है और तब धरती हिलती है। धर्म के ठेकेदारों ने घोषणा की : जब-जब धर्म की हानि होती है जब-जब अधर्म बढ़ता है जब-जब भरता है पाप का घड़ा बढ़ जाते हैं अन्याय और अनाचार तो धरती हिलती है। हिलती है धरती पड़ती है दरारें मटियामेट हो जाती हैं दस-दस मंजिलें भू-गर्भ में समा जाती हैं हजारोहजार झोंपडि़याँ। बिंध जाती हैं स्कूली बच्चों की आँतें गौमाता के सींग से। कछुए की पीठ पर गिरकर लहूलुहान हो जाते हैं गर्भवती महिलाओं के नए जीवन की संभावनाओं से भरे हुए उदर। शेषनाग के विषदंश से नीला पड़ जाता है खेतों और कारखानों में काम करते आदमी का खून। प्लेटों की तरह टूटती हैं अट्टालिकाएँ और क्षत-विक्षत हो जाती है पृथ्वी की हरी-भरी काया। काले साये-सी मौत, दौड़ रही है हर पल हर दिशा से घेर कर आदमी के प्राण को। इतनी सारी मौत, आदमी अकेला। सृष्टि के आरंभ से चली आती है यह दौड़, भूकंप लीलते हैं बार-बार सभ्यताओं को और अट्टहास करता है कालभैरव तांडव नृत्य के बीच पर हर बार कहीं ढेरोढेर मलबे के तले हिलता है एक हाथ और उग आती हैं पाँच उँगलियाँ साँस लेती हुई सारे मलबे को चीरकर चुनौती देती हुई! O |
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