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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

दोहे : शरद पूर्णिमा

कालिंदी का कूल वह,
वह कदंब की डार.
मन-मधुवन में थिरकते 
अब भी बारंबार..

'राधा-राधा' टेरती 
जब वंशी की तान.
मन-पंछी तब-तब भरे 
चंदा और उड़ान.

१० अक्तूबर २००३  

3 टिप्‍पणियां:

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

sundar dohe !

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

सरजी, चंदा ओर उडान :)
सुंदर दो दो-हे॥

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

झंझट जी और प्रसाद जी,
आप दोनों को दोहे अच्छे लगे....टिप्पणी के लिए धन्यवाद.