मनुष्य नहीं हूँ मैं अब
एक गाथा हूँ;
गाथा गूँजती है
चारमीनार से कन्नगी की प्रतिमा तक
और सुनी जा सकती है
मैरीना बीच से कोवलम तक;
गाथा कसैले संवादों की,
गाथा घिनौने प्रवादों की.
गली-गली घर-घर
चीख-चीख कर
जाने कितने धोबी
सुना रहे हैं मेरी करतूत,
महलों तक पहुँचा रहे हैं आसूचना
दिशा-दिशा से
दुर्मुख दूत.
राम, तुम कहाँ हो ?
मुझे निर्वासित क्यों नहीं करते?
मेरे लिए तो धरती फटने से रही!
[22 /2 /2005 ]
एक गाथा हूँ;
गाथा गूँजती है
चारमीनार से कन्नगी की प्रतिमा तक
और सुनी जा सकती है
मैरीना बीच से कोवलम तक;
गाथा कसैले संवादों की,
गाथा घिनौने प्रवादों की.
गली-गली घर-घर
चीख-चीख कर
जाने कितने धोबी
सुना रहे हैं मेरी करतूत,
महलों तक पहुँचा रहे हैं आसूचना
दिशा-दिशा से
दुर्मुख दूत.
राम, तुम कहाँ हो ?
मुझे निर्वासित क्यों नहीं करते?
मेरे लिए तो धरती फटने से रही!
[22 /2 /2005 ]
2 टिप्पणियां:
राम, तुम कहाँ हो ?
मुझे निर्वासित क्यों नहीं करते?
मेरे लिए तो धरती फटने से रही!
और अब तो सरयु भी सूख गई :(
क्या इस कविता को तेवरी की श्रेणी में रखेंगे?
नहीं सर जी, तेवरी का शिल्प लगभग ग़ज़ल के जैसा दिखना चाहिए [वैसे होता अलग है]......बाकी बातें विस्तार से फोन पर.
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