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बुधवार, 26 जनवरी 2011

परी की कहानी

एक परी थी
एक मैं था
मैं क्या था
मैं तो था ही नहीं
बस एक परी थी

परी ने मुझे देखा
मैं धरती पर रेंग रहा था
परी मुस्कराई
मेरे पास आई,
जादू की छडी के अगले सिरे पर चिपके
शुक्र तारे से मुझे छू दिया
मेरी काया के तार झनझना उठे
मेरी रीढ़ में से दो सुनहरे पंख उग आए

परी ने कहा - 'उड़ो'
और मैं
सम्मोहित सा उड़ चला
देर तक उड़ता रहा
दूर तक उड़ता रहा
जब तक वह उड़ाती रही
जहाँ तक वह उड़ाती रही

वह मुझे रोज़ उड़ाती
मैं रोज़ उड़ता
आखिर मैं अच्छा उड़ाक बन गया

बादलों के शीश पर उड़ते हुए
एक दिन मैंने परी से पूछा -
'क्यों दिए तुमने मुझे ये पंख
क्यों सिखाया मुझे उड़ना '

वह हमारा पहला संवाद था
परी ने सहजता से उत्तर दिया-
'क्योंकि मुझे उड़ने वालों से नफरत है
क्योंकि मैं पंखवालों का आखेट करती हूँ'

इसके बाद परी मुस्कराई
मेरे पास आई
जादू की तलवार से धीरे धीरे मेरे पंख रेत दिए
अपनी दी हुई हर उड़ान को हलाल कर दिया

अब 'मैं' फिर धरती पर रेंग रहा है.

[कहानी का नीति पाठ :  
उड़ान के लिए जादू के नहीं सच के पंख चाहिए होते हैं!]


25 फरवरी 2004

4 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आसमां पर उड़नेवाले तेरी पतंग की डोर जिन हाथों में है

ज़रा खौफ़ खा वर्ना मत कहना कि ये क्या कमाल हुआ॥

शिवा ने कहा…

नमस्ते सर जी .
बहुत सुंदर कविता

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

अब 'मैं ' फिर धरती पर रेंग रहा है .
बहुत सुन्दर रचना !

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@cmpershad
shiva
सुरेन्द्र सिंह " झंझट "

दरअसल इस कविता में उपभोक्तावाद के मोहक/मारक स्वरूप की व्यंजना का प्रयास किया था मैंने. आप लोगों ने इस मर्म को पकड़ा, इस हेतु कृतज्ञ हूँ.