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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

लांछित

मनुष्य नहीं हूँ मैं अब
एक गाथा  हूँ;

गाथा गूँजती है
चारमीनार से कन्नगी की प्रतिमा तक
और सुनी जा सकती है
मैरीना बीच से कोवलम तक;
गाथा कसैले संवादों की,
गाथा घिनौने प्रवादों की.

गली-गली घर-घर
चीख-चीख कर
                 जाने कितने धोबी
सुना रहे हैं मेरी करतूत,
महलों तक पहुँचा  रहे हैं आसूचना
दिशा-दिशा से
                   दुर्मुख दूत.

राम, तुम कहाँ हो ?
मुझे निर्वासित क्यों नहीं करते?
मेरे लिए तो धरती फटने से रही!

[22 /2 /2005 ]

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

राम, तुम कहाँ हो ?
मुझे निर्वासित क्यों नहीं करते?
मेरे लिए तो धरती फटने से रही!


और अब तो सरयु भी सूख गई :(

क्या इस कविता को तेवरी की श्रेणी में रखेंगे?

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

नहीं सर जी, तेवरी का शिल्प लगभग ग़ज़ल के जैसा दिखना चाहिए [वैसे होता अलग है]......बाकी बातें विस्तार से फोन पर.