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सोमवार, 14 मई 2012

मैं बुझे चाँद सा

मैं बुझे चाँद सा
अन्धेरे में छिपा हुआ बैठा था
सब रागिनियाँ डूब चुकी थीं
प्रलय निशा में

तभी जगे तुम
दूर सिंधु के जल में झलमल
और बाँसुरी ऐसी फूँकी
अंधकार को फाँक फाँक में चीर चीर कर
सातों सुर बज उठे
सात रंगों वाले

बुझे चाँद में एक एक कर
सभी कलाएँ थिरक उठीं!

4 टिप्‍पणियां:

Suman ने कहा…

बेहद सुंदर रचना .....

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

यही है जीवन का क्रम -चाँद की कलाओं के समान पुनर्नवीन होना !

बेनामी ने कहा…

jeevan ke charodo ko chand se paribhasit kiya aap ,sunder rcahna

http://blondmedia.blogspot.in/

Vinita Sharma ने कहा…

अंधकार को फांक फांक में चीर चीर कर 'बहुत अच्छा प्रयोग ,लिखते रहें शुभ कामना