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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

सृजन का पल

अभिव्यक्ति की इच्छा
सृजन की चाह
अपनी अस्मिता की खोज है केवल!

जब त्वचा छूती किसी भी पुष्प को
                         दूब, तृण को
                         रेत को
                         या पत्थरों को भी,
एक सिहरन दौड़ती सारी शिराओं-
                                 धमनियों में
                              फिर छुएँ
                              फिर - फिर छुएँ
                              फिर ना छुएँ
बोलने लगता उमगता रक्त,
वह पल
अभिव्यक्ति का पल
             है सृजन का पल !

तैरते हैं रंग यों तो आँख के आगे
                                       सभी
पर कभी जब रंग कोई
पुतलियों के पार जाकर स्वप्न
                         में तिरने लगे
चेतना के गहन तल पर
ऊर्जा का इंद्रधनु खिलने लगे
अवसाद की हर घनघटा चिरने लगे
ज्योति से संकल्प शिव की,
                बस वही (पल)
                अभिव्यक्ति का पल
                             है सृजन का पल !

प्राणवाही गंध कोई
प्राण में ऐसी बसे
       रागिनी बजने लगे
       यों तार साँसों का कसे
मन हिरन व्याकुल फिरे
            नित दौड़ता नख-शिख
और थक कर बैठ जाए
            नाभि में सिर को धरे,

वह विकलता
दौड़ पगली
वह पराजयबोध,
वह अचानक प्राप्ति का सुख,
                बस वही (पल)
                अभिव्यक्ति का पल
                             है सृजन का पल !

आत्मा प्यासी जनम की 
खोजती फिरती
नदी, सरवर, कूप
कंठ में काँटे उगाती
ज़िन्दगी की धूप

और जब मिलती नदी तो
       शब्दभेदी बाण कोई
       प्राण-पशु को बींध जाता
               प्यास पर मरती नहीं

या कभी सरवर मिले तो
         यक्ष कोई सामने आ
         प्रश्न सारे दाग देता
         औ' तृषा कीलित पड़ी
                 मूर्च्छित तड़पती
खोज जल की नित्य चलती
तब कहीं मिलता कुआँ,
                  वह झील नीली -
ओक से पीकर जिसे
चिर तृप्ति का अहसास हो
              दूध की वह धार निर्मल
              वह सुधा से सिक्त आँचल 

बस वही पल
अभिव्यक्ति का पल
                है सृजन का पल !

टूटता है मौन
सीमा टूटती है,
देह घुल जाती दिशाओं में
और केवल शून्य बचता है-
                             विदेही,

शून्य में से जब प्रकटते शब्द तारे
बस वही पल
अभिव्यक्ति का पल
               है सृजन का पल !

एक दुर्लभ पल वही मुझको मिला था
आज तुमको सौंपता ,
स्वीकार लो निश्छल,
              बस यही  पल
              अभिव्यक्ति का पल
              है सृजन का पल !


(२१/३/२००४)

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

चर्वणा

मेरे दाँतों में
फँस गई है मेरी अपनी हड्डी.

निकालने की कोशिश में
लहूलुहान हो गया है जबड़ा
कट फट गए हैं मेरे होंठ.

और वे
मेरे विकृत चेहरे को
सुंदर बता रहे हैं,
मेरा अभिनंदन कर रहे हैं
उत्तर आधुनिक युग का अप्रतिम प्रेमी कहकर.

(१६/११/२००३)

रविवार, 26 दिसंबर 2010

द्वा सुपर्णा

एक डाल पर बैठे हैं
                      वे दोनों
दोनों के पंख सुनहरे हैं
पेट भी दोनों के हैं

एक का पेट भरा है
वह फिर भी खाता है

दूसरे  का पेट खाली है
वह फिर भी देखता है

केवल देखता है!

कब तक देखते रहोगे, यार?

(७/११/२००३)

पुनर्जन्म

ठीक ही हुआ
बिखर गईं मेरी पंखुड़ियाँ.
नहला गईं हवाओं को
अपनी खुशबू से.

मर कर भी
मैं मरा नहीं,
मिटा नहीं.

फिर से जी उठा
                    तुम्हारी साँसों में.

(१९/१०/२००३)

मौत

बहुत निष्ठुर प्रेमिका है मौत
रूठकर ऐसी गई
                       आती नहीं.
जनम से
घर में घुसी यह सौत
                       ज़िन्दगी
उसको तनिक
                       भाती नहीं.

(१२/१०/२००३)

वह

मैं जब भी उससे मिलता हूँ आजकल
मेरी आँखें उसकी भोंहों के बीच टिक जाती हैं.

उसे पता भी नहीं चलता
और मुझे उसकी
पल-पल बदलती सूरतें दिख जाती हैं.

कभी वह पत्रकार दिखता हैं तो कभी कवि,
कभी जनता का नेता तो कभी तानाशाह.
रावण से लेकर हिटलर तक कितने रूप हैं उसके!

वैसे 'राम-राम' लिखता है
ऊपर से गांधी दिखता है.

(दो अक्टूबर 2003)

सत्यवादी

जब-जब तुम्हें याद करता हूँ
सच बोलना चाहता हूँ!

जब-जब सच बोलना चाहता हूँ
तुम्हारा अंत याद आ जाता है!

और मैं
कन्नी काटकर निकल जाता हूँ!

(दो अक्टूबर २००३)

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

निकटता

मैं तुम्हारे  निकट आई
कुछ माँगने नहीं
कुछ देने भी नहीं
जीने और चुपचाप बहने

पता ही नहीं चला
कब तुम दाता बन बैठे
और मैं भिखारी

जीवन बेगार में बदल गया
बहाव गंदली झील में
चुप्पी धीरे धीरे उतरती मौत में

आवास

या तो
समुद्र की लहरों पर
हो
मेरा बसेरा .
          कभी सोऊँ नहीं .

या
सोती रहूँ
तेरे विशाल वक्षस्थल पर .
          कभी जागूँ नहीं.

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मैंने देखा है

मैंने तुम्हारा प्यार देखा है
बहुत रूपों में

मैंने देखी है तुम्हारी सौम्यता
और स्नान किया है चाँदनी में,
महसूस किया है
रोमों की जड़ों में
रस का संचरण
और डूबता चला गया हूँ
गहरी झील की शांति में

मैंने देखी है तुम्हारी उग्रता
और पिघल गया हूँ ज्वालामुखी में,
महसूस किया है
रोमकूपों को
तेज़ाब से भर उठते हुए
और गिरता चला गया हूँ
भीषण वैतरणी की यंत्रणा में

मैंने देखी है तुम्हारी हँसी
और चूमा है गुड़हल के गाल को,
महसूस किया है
होठों में और हथेलियों में
कंपन और पसीना
और तिरता चला गया हूँ
इंद्रधनु की सतरंगी नौका में

मैंने देखी है तुम्हारी उदासी
और चुभो लिया है गुलाब के काँटे को,
महसूस किया है
शिराओं में और धमनियों में
अवसाद और आतंक
और फँसता चला गया हूँ
जीवभक्षी  पिचर प्लांट के जबड़ों में

मैंने देखा है
तुम्हारे जबड़ों का कसाव ,
मैंने देखा है
तुम्हारे निचले होठ का फड़फड़ाना,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों का फूल जाना,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों का सुलग उठाना ,
मैंने देखा है
तुम्हारा पाँव पटक कर चलना,
मैंने देखा है
तुम्हारा दीवारों से सर टकराना

और हर बार
लहूलुहान हुआ हूँ
मैं भी तुम्हारे साथ
और महसूस किया है
तुम्हारी
असीम घृणा के फैलाव को

लेकिन दोस्त!
मैंने खूब टटोल कर देखा
मुझे अपने भीतर नहीं दिखी
तुम्हारी वह घृणा

मेरे निकट
तुम्हारी तमाम घृणा झूठ है

मैंने देखा है
तुम्हारी भुजाओं का कसाव भी ,
मैंने देखा है
तुम्हारी पेशियों का फड़कना भी ,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों पर बिजली के फूलों का खिलना भी,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों में भक्ति का उन्माद भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे चरणों में नृत्य का उल्लास भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे माथे को अपने होठों के समीप आते हुए भी

और महसूसा है हर बार
तुम्हारे अर्पण में
अपने अर्पण की पूर्णता को!

प्रेम बना रहे!!

<1 मार्च 1995 >




  

सोमवार, 22 नवंबर 2010

चूहे की मौत

अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है 
मैं बहुत फुर्तीला था 
बहुत तेज़ दौड़ता था 
बहुत  उछल कूद करता था 

तुमसे देखी नहीं गई
               मेरी यह जीवंतता
और तुम ले आए 
एक खूबसूरत सा 
खूब मज़बूत सा 
               पिंजरा 
सजा दिए उसमें
कई तरह के खाद्य पदार्थ 
               चिकने और कोमल 
               सुगंधित और नशीले 
महक से जिनकी 
फूल उठे मेरे नथुने 
फड़कने लगीं मूँछें
खिंचने लगा पूरा शरीर 
               काले जादू में बँधा सा 

जाल अकाट्य था तुम्हारा 
मुझे फँसना ही था 
               मैं फँस गया 

तुम्हारी सजाई चीज़ें 
मैंने जी भरकर खाईं
परवाह नहीं की 
क़ैद हो जाने की 

सोचा - पिंजरा है तो क्या 
               स्वाद भी तो है 
               स्वाद ही तो रस है 
               रस ही आनंद 
               'रसो वै सः' 

उदरस्थ करते ही स्वाद को 
मेरी पूरी दुनिया ही उलट गई 
यह तो मैंने सोचा भी न था 
झूठ थी चिकनाई 
झूठ थी कोमलता 
झूठ थी सुगंध 
और झूठ था नशा 

सच था केवल ज़हर 
               केवल विष 
जो तुमने मिला दिया था 
               हर रस में 

और अब 
तुम देख ही रहे हो
मैं किस तरह छटपटा रहा हूँ 


सुस्ती में बदल गई है मेरी फुर्ती 
पटकनी खा रही है मेरी दौड़ 
मूर्छित हो रही है मेरी उछल कूद 

मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ 

तुम्हारे चेहरे पर 
उभर रही है एक क्रूर मुस्कान 
तुम देख रहे हो 
               एक चूहे का 
               अंतिम नृत्य 

बस कुछ ही क्षण में 
मैं ठंडा पड़ जाऊँगा

पूँछ से पकड़कर तुम 
फेंक दोगे मुझे 
बाहर चीखते कव्वों की 
               दावत के लिए!  


<21 सितंबर  2003>   

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

रक्त स्नान

हम तुम्हारी राह में कालीन बन बिछते  गए.
और अपनी कीच से तुम सानते हमको गए..
हमने तुम्हारे पाप को भी शीश पर अपने चढ़ाया.
किंतु  तुमने तो हमेशा दीप औरों का बुझाया..
आज खाली पेट नंगी पीठ हम दर पर खड़े.
आपके संकेत पर लाठी पडीं कोड़े पड़े..
न्यायकर्ता क्या बताएँ भूख का  कर्तव्य क्या?
अब अगर हम हाथ में बंदूक लें अपराध क्या?

आज तक हम ही तुम्हें निज रक्त पर पोसा किए.
अब तुम्हारे रक्त से जन-द्रोपदी का स्नान हो!!

शनिवार, 13 नवंबर 2010

भाषाहीन

मेरे पिता ने बहुत बार मुझसे बात करनी चाही 
मैं भाषाएँ सीखने में व्यस्त थी 
कभी सुन न सकी उनका दर्द 
बाँट न सकी उनकी चिंता 
समझ न सकी उनका मन 

आज मेरे पास वक़्त है 
पर पिता नहीं रहे 
उनकी मेज़ से मिला है एक ख़त 

मैं ख़त को पढ़ नहीं सकती 
जाने किस भाषा में लिखा है 
कोई पंडित भी नहीं पढ़ सका 

भटक रही हूँ बदहवास आवाजों के जंगल में 
मुझे भूलनी होंगी सारी भाषाएँ 
पिता का ख़त पढ़ने  की खातिर  

पछतावा

हम कितने बरस साथ रहे 
एक दूसरे की बोली पहचानते हुए भी चुपचाप रहे 

आज जब खो गई है मेरी ज़ुबान
तुम्हारी सुनने और देखने की ताकत 
छटपटा रहा हूँ मैं  तुमसे कुछ कहने को 
बेचैन हो तुम मुझे सुनने देखने को 

हमने वक़्त रहते बात क्यों न की  

रविवार, 7 नवंबर 2010

अबोला

बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे
कान फटे जाते थे
फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना
कभी मुझसे छिपा नहीं रहा
तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं
दिल से सुनता था

बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे
मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद  से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है

और कब तक

मैं लोकतंत्र में विश्वास रखता हूँ
किसी की आज़ादी में कटौती मुझे स्वीकार नहीं

उसे बंदूक चलाने की आज़ादी चाहिए
मेरी खोपड़ी उड़ाने के लिए

मेरे हाथ बँधे हैं, उसके खुले

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

पहले तीन दीवे

सुनो!
एक दीवा  दरवाज़े पर ज़रूर रख देना.

और हाँ,
एक दीवा  रास्ते के अंधे मोड़ पर भी.

तब तक मैं
आकाशदीप बाल आता हूँ.

!!ज्योतिपर्व मंगलमय हो!!




सोमवार, 1 नवंबर 2010

प्रेतानुभूति

अभी उस रात मैं मर गया 

घूमते घामते फिर अपने नगर गया 

मेरा सबसे प्रिय मित्र सुख की नींद सोया था, 
मुझे अच्छा लगा 
मुझे शांति मिली 

धूप  चढ़े मेरी खिड़की में चावल चुगने आता कबूतर 
बहुत बेचैन दिखा 
चोंच घायल कर ली थी तस्वीर से टकरा कर,  
मुझे बहुत खराब लगा 
मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी 

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

मेरा पक्ष

मैंने प्रण किया था-
तुम्हारा  साथ दूँगा
भूख के खिलाफ हर युद्ध में.
मैंने उठाई थी बंदूक-
बुर्ज पर टँगी तुम्हारी रोटी
उतार लाने को.

आज तुम्हारे हाथों में 
खून की रोटी है 
और तुम खेत में बारूद उगाने लगे हो 
अनाज की जगह.

यार मेरे , इतना तो बता -
अब मैं किसे मारूँ! 

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

कंगारू

मैं कंगारू हूँ.
मेरी छाती में एक जेब है,
जेब में एक बच्चा.
बच्चे को हर हाल में बचाना है मुझे.

वे मुझे बंदर समझते हैं
और मेरे बच्चे को लाश.
कैसे सौंप दूँ उन्हें? 
बच्चे को हर हाल में बचाना है मुझे!

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

सोमवार, 27 सितंबर 2010

आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी का सम्मान समारोह संपन्न

ऋषभ देव शर्मा को आंध्र अकादमी का पुरस्कार प्राप्त 

आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी, हैदराबाद [आंध्र प्रदेश] ने  हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर अकादमी भवन में हिंदी उत्सव का आयोजन किया और अच्छी धूमधाम से २०१० के हिंदी पुरस्कार सम्मानित हिंदीसेवियों तथा साहित्यकारों को समर्पित किए. एक लाख रुपए का पद्मभूषण मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार अष्टावधान    विधा को लोकप्रिय बनाने के उपलक्ष्य में डॉ. चेबोलु शेषगिरि राव को प्रदान किया गया. तेलुगुभाषी उत्तम हिंदी अनुवादक और युवा लेखक के रूप में इस वर्ष क्रमशः वाई सी पी वेंकट रेड्डी और डॉ.सत्य लता को सम्मानित किय गया. डॉ. किशोरी लाल व्यास को दक्षिण भारतीय भाषेतर हिंदी लेखक पुरस्कार प्राप्त हुआ तथा विगत दो दशक  से दक्षिण भारत में रहकर हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा के उपलक्ष्य में डॉ.ऋषभ देव शर्मा को बतौर हिंदीभाषी लेखक पुरस्कृत किया गया. इन चारों श्रेणियों में पुरस्कृत प्रत्येक लेखक को पच्चीस हज़ार रुपए तथा प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया.    
पुरस्कृत लेखकों ने ये सभी पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता शीर्षस्थ साहित्यकार पद्मभूषण डॉ. सी.नारायण रेड्डी के करकमलों से अकादमी के अध्यक्ष पद्मश्री डॉ.यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद , आंध्र प्रदेश के भारी सिंचाई मंत्री पोन्नाला लक्ष्मय्या तथा माध्यमिक शिक्षा मंत्री माणिक्य वरप्रसाद राव  के सान्निध्य में ग्रहण किए. 
इस अवसर पर बधाई देते हुए  डॉ. सी नारायण रेड्डी ने साहित्यकारों का आह्वान किया कि हिंदी के माध्यम से आंध्र प्रदेश के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को देशविदेश के हिंदी  पाठकों के समक्ष प्रभावी रूप में प्रस्तुत करें. डॉ. यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद ने भी ध्यान दिलाया कि अकादमी का उद्देश्य केवल हिंदी को प्रोत्साहित करना भर नहीं  बल्कि हिंदी के माध्यम से आंध्र प्रदेश के प्रदेय से शेष भारत और विश्व को परिचित कराना है.
सम्मान के क्रम में सबसे पहले डॉ. सी.नारायण रेड्डी ने पुष्पगुच्छ दिया.
और फिर प्रशस्तिपत्र, स्मृतिचिह्न एवं सम्मानराशि प्रदान की गई.
सम्मान ग्रहण करते हुए कवि-समीक्षक ऋषभ देव शर्मा .
भारी वर्षा के बावजूद इस आयोजन में भारी संख्या में हिंदीप्रेमी  उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए.
डॉ. सी.नारायण रेड्डी ने अपनी हिंदी ग़ज़ल भी सुनाई  -'बादल का दिल पिघल गया तो सावन बनता है.' 
सरकारी आयोजन था.सो, मीडिया वाले भी कतारबद्ध थे. अगले दिन हिंदी, तेलुगु और अंग्रेजी के समाचारपत्रों में तो छपा ही, चैनलों पर भी दिखाया गया.  
आंध्र के हिंदीपरिवार की एकसूत्रता और  आत्मीयता  पूरे आयोजन में दृष्टिगोचर हुई.
इस बहाने कुछ क्षण मिलजुलकर हँसने-मुस्कराने के भी मिले. 

मंगलवार, 4 मई 2010

लाज न आवत आपको


तुम्हें चबाने को हड्डी चाहिए थी
खाने को गर्म गोश्त
चाटने को गोरी चमड़ी
चाकरी को सेविका
और साथ सोने को रमणी.


तुमने मुझे नहीं
मेरी देह को चाहा.
पर मैं देह होकर भी
देह भर नहीं थी.


मैं औरत थी!
मुझे लोकलाज थी!


तरसती थी मैं भी - तुम्हारे संग को
तड़पती थी मैं भी - राग रंग को
पर मुझे लोकलाज थी.


तुम क्या जानो लोकलाज?
बस दौड़े चले आए साथ साथ!


न तुमने रात देखी न बारिश
न तुमने नाव देखी न नदी
तुम्हें लाश भी दिखाई नहीं दी
साँप तो क्या ही दीखता?
तुम लाश पर चढ़े चले आए!
तुम साँप से खिंचे चले आए!
न था तुम्हें कोई भय
न थी लोकलाज.


तुम पुरुष थे
सर्वसमर्थ .


और समर्थ को कैसा दोष?


मैं औरत थी
पूर्ण पराधीन.


और पराधीन को कैसा सुख?


तुम आए
मैंने सोचा-
प्रलय की रात में मेरा प्यार आ गया.
पर नहीं
यह तो कोई और था.
इसे तो
हड्डी चाहिए थी चबाने को
गर्म गोश्त खाने को
गोरी चमड़ी चाटने को
और रमणी साथ सोने को!


पर मैं औरत थी
लोकलाज की मारी औरत!


तुम्हें बता बैठी तुम्हारा सच
और तुम लौट गए उलटे पैरों
कभी न आने को!

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

स्वेच्छाचार

हाँ, मैं स्वेच्छाचारी हूँ.
उन्होंने मुझे हल में जोतना चाहा
मैंने जुआ गिरा दिया ,
उन्होंने मुझपर सवारी गाँठनी चाही
मैंने हौदा ही उलट दिया,
उन्होंने मेरा मस्तक रौंदना चाहा
मैंने उन्हें कुंडली लपेटकर पटक दिया,
उन्होंने मुझे जंजीरों में बाँधना चाहा
मैं पग घुँघरू बाँध सड़क पर आ गई!

अब वे मुझसे घृणा करते हैं
माया महाठगनी कहते हैं
मेरी छाया से भी दूर रहते हैं.
बेचारे परछाई से ही अंधे हो गए
हिरण्मय आलोक कैसे झेल पाते!

हाँ,मैं हूँ स्वेच्छाचारी!
मैंने अपने गिरिधर को चाहा
उसी का वरण किया
गली गली घोषणा की-
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई!

मेरे पति की सेज सूली के ऊपर है,री!
मुझे बहुत भाती है,
मैंने खुद जो चुनी है!!