Parampara .. Tradition
( 'परंपरा' का अंग्रेज़ी अनुवाद )
हिंदी मूल - डॉ. ऋषभ देव शर्मा * अंग्रेज़ी अनुवाद - एलिजाबेथ कुरियन 'मोना'
They are Earth- bear everything, remain silent
They are cows – provide milk, give calves too,
For their sake, we wage wars,
Then auction them at the crossroads:
We are not ashamed of this
This is our
tradition,
Our time honored tradition.
Since time immemorial,
They followed us
To suffer, put up with exile
To lead life in anonymity
And bear every curse;
Sometimes becoming Janaki,
Sometimes Draupadi, sometimes Shaivya ,
After all it is their duty.
And our duty?
What is our duty?
Do we have a duty?
When they are heavy with child,
We keep abandoning them in forests,
At the mercy of the five elements,
While we climb the stairs to heaven,
Holding dog’s chain
in our hands ,
Leaving them to melt in ice, part by part;
And when they bring the corpses of our children
Draped in half torn sarees,
We, as the cemetery’s custodians
Extracted full tax from them claiming
Also the portion of
their sarees remaining.
And we are not in the least ashamed
We have even auctioned even our queens
In the crossroads of Benaras
In the garb of the honest Harishchandra .
We have sold many princess Chandanbalas of Champa
In the market places of Kaushambi
In the role of the rich lord nagarseth.
At no time, either at a sale or an auction
Did anyone raise any objection;
No throne shook,
No authority spoke up
Nor a question raised in any Parliament ;
Then why are you kicking up a row now?
We have not done anything new
We have merely auctioned a few girls,
Some women (some land, some cows)
In the markets of Eluru
अकादमिक प्रतिभा, नई दिल्ली - 100 059
2011/ 250/= आईएसबीएन : 978-93-80042-59-6.
प्राप्ति स्थान -
डॉ. ऋषभ देव शर्मा, 208 - ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद - 500 013 .
फोन : +91 8121435033.
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In the shops of villages in Andhra.
What’s new in this?
Why do you make so much noise?
Why raise a questioning voice?
We are not ashamed for this,
This is our tradition,
Our honored tradition.
वे पृथ्वी हैं-
सब सहती हैं
चुप रहती हैं,
वे गाय हैं-
दूध देती हैं
बछड़े भी देती हैं,
हम युद्ध करते हैं
उनकी खातिर
और फिर
लगाते हैं चौराहों पर
उनकी बोली।
हम इसके लिए शर्मिंदा नहीं हैं,
यह तो हमारी परंपरा है-
गौरवशाली परंपरा!
वे सदा से
चलती आई हैं
हमारे साथ
झेलने के लिए
हर देश-निकाला,
हर एक अज्ञातवास
और हर एक अभिशाप-
कभी जानकी बनकर,
कभी द्रौपदी बनकर
तो कभी शैव्या बनकर।
आखिर यही तो
उनका धर्म है न !
और हमारा धर्म?
हमारा धर्म क्या है??
क्या है हमारा धर्म???
छोड़ आते रहे हैं हम उन्हें
बियाबान में
पंचतत्वों के हवाले,
गर्भवती होने पर।
चढ़े चले जाते हैं हम
कुत्तों की ज़ंजीर थामे
स्वर्ग के सोपान पर,
छोड़कर उनके एक एक अंग को
बर्फ में गलता हुआ।
और जब वे आती हैं
आधी साडी़ में लपेटे हुए
हमारे अपने बच्चों की लाश को,
वसूलते रहे हैं हम
पूरा पूरा टैक्स
मसान के पहरेदार बनकर
बची खुची आधी साड़ी से।
और हम
इसके लिए कतई शर्मिंदा नहीं हैं,
आखिर यह हमारी परंपरा है-
गौरवशाली परंपरा!
नीलाम किया है हमने
अपनी रानियों तक को
बनारस के चौराहों पर
सत्यवादी हरिश्चंद्र बनकर।
बोली लगाई है हमने
चंपा की राजपुत्री चंदनबालाओं तक की
कौशांबी के बाज़ारों में
धनपति नगरसेठ बनकर।
कभी.......
किसी नीलामी पर
किसी बोली पर
किसी को ऐतराज़ नहीं हुआ,
कोई आसन नहीं डोला,
कोई शासन नहीं बोला,
और न ही कभी
एक भी सवाल उठा-
किसी संसद में।
फिर अब क्यों बवाल उठाते हो?
कुछ नया तो नहीं किया हमने ;
कुछ लड़कियों, कुछ औरतों को-
(कुछ ज़मीनों, कुछ गायों को)-
नीलाम भर ही तो किया है
एलूरु के बाज़ारों में,
आंध्र के गाँवों की हाटों में।
इसमें नया क्या है?
क्यों बवाल मचाते हो??
क्यों सवाल उठाते हो???
हम तो इसके लिए शर्मिंदा नहीं हैं,
यही तो हमारी परंपरा है-
गौरवशाली परंपरा!
http://bit.ly/K5HUpx
('देहरी', पृष्ठ 77)