मैंने तुम्हारा प्यार देखा है
बहुत रूपों में
मैंने देखी है तुम्हारी सौम्यता
और स्नान किया है चाँदनी में,
महसूस किया है
रोमों की जड़ों में
रस का संचरण
और डूबता चला गया हूँ
गहरी झील की शांति में
मैंने देखी है तुम्हारी उग्रता
और पिघल गया हूँ ज्वालामुखी में,
महसूस किया है
रोमकूपों को
तेज़ाब से भर उठते हुए
और गिरता चला गया हूँ
भीषण वैतरणी की यंत्रणा में
मैंने देखी है तुम्हारी हँसी
और चूमा है गुड़हल के गाल को,
महसूस किया है
होठों में और हथेलियों में
कंपन और पसीना
और तिरता चला गया हूँ
इंद्रधनु की सतरंगी नौका में
मैंने देखी है तुम्हारी उदासी
और चुभो लिया है गुलाब के काँटे को,
महसूस किया है
शिराओं में और धमनियों में
अवसाद और आतंक
और फँसता चला गया हूँ
जीवभक्षी पिचर प्लांट के जबड़ों में
मैंने देखा है
तुम्हारे जबड़ों का कसाव ,
मैंने देखा है
तुम्हारे निचले होठ का फड़फड़ाना,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों का फूल जाना,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों का सुलग उठाना ,
मैंने देखा है
तुम्हारा पाँव पटक कर चलना,
मैंने देखा है
तुम्हारा दीवारों से सर टकराना
और हर बार
लहूलुहान हुआ हूँ
मैं भी तुम्हारे साथ
और महसूस किया है
तुम्हारी
असीम घृणा के फैलाव को
लेकिन दोस्त!
मैंने खूब टटोल कर देखा
मुझे अपने भीतर नहीं दिखी
तुम्हारी वह घृणा
मेरे निकट
तुम्हारी तमाम घृणा झूठ है
मैंने देखा है
तुम्हारी भुजाओं का कसाव भी ,
मैंने देखा है
तुम्हारी पेशियों का फड़कना भी ,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों पर बिजली के फूलों का खिलना भी,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों में भक्ति का उन्माद भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे चरणों में नृत्य का उल्लास भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे माथे को अपने होठों के समीप आते हुए भी
और महसूसा है हर बार
तुम्हारे अर्पण में
अपने अर्पण की पूर्णता को!
प्रेम बना रहे!!
<1 मार्च 1995 >
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मंगलवार, 23 नवंबर 2010
सोमवार, 22 नवंबर 2010
चूहे की मौत
अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है
मैं बहुत फुर्तीला था
बहुत तेज़ दौड़ता था
बहुत उछल कूद करता था
तुमसे देखी नहीं गई
मेरी यह जीवंतता
और तुम ले आए
एक खूबसूरत सा
खूब मज़बूत सा
पिंजरा
सजा दिए उसमें
कई तरह के खाद्य पदार्थ
चिकने और कोमल
सुगंधित और नशीले
महक से जिनकी
फूल उठे मेरे नथुने
फड़कने लगीं मूँछें
खिंचने लगा पूरा शरीर
काले जादू में बँधा सा
जाल अकाट्य था तुम्हारा
मुझे फँसना ही था
मैं फँस गया
तुम्हारी सजाई चीज़ें
मैंने जी भरकर खाईं
परवाह नहीं की
क़ैद हो जाने की
सोचा - पिंजरा है तो क्या
स्वाद भी तो है
स्वाद ही तो रस है
रस ही आनंद
'रसो वै सः'
उदरस्थ करते ही स्वाद को
मेरी पूरी दुनिया ही उलट गई
यह तो मैंने सोचा भी न था
झूठ थी चिकनाई
झूठ थी कोमलता
झूठ थी सुगंध
और झूठ था नशा
सच था केवल ज़हर
केवल विष
जो तुमने मिला दिया था
हर रस में
और अब
तुम देख ही रहे हो
मैं किस तरह छटपटा रहा हूँ
सुस्ती में बदल गई है मेरी फुर्ती
पटकनी खा रही है मेरी दौड़
मूर्छित हो रही है मेरी उछल कूद
मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ
तुम्हारे चेहरे पर
उभर रही है एक क्रूर मुस्कान
तुम देख रहे हो
एक चूहे का
अंतिम नृत्य
बस कुछ ही क्षण में
मैं ठंडा पड़ जाऊँगा
पूँछ से पकड़कर तुम
फेंक दोगे मुझे
बाहर चीखते कव्वों की
दावत के लिए!
<21 सितंबर 2003>
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
रक्त स्नान
हम तुम्हारी राह में कालीन बन बिछते गए.
और अपनी कीच से तुम सानते हमको गए..
हमने तुम्हारे पाप को भी शीश पर अपने चढ़ाया.
किंतु तुमने तो हमेशा दीप औरों का बुझाया..
आज खाली पेट नंगी पीठ हम दर पर खड़े.
आपके संकेत पर लाठी पडीं कोड़े पड़े..
न्यायकर्ता क्या बताएँ भूख का कर्तव्य क्या?
अब अगर हम हाथ में बंदूक लें अपराध क्या?
आज तक हम ही तुम्हें निज रक्त पर पोसा किए.
अब तुम्हारे रक्त से जन-द्रोपदी का स्नान हो!!
और अपनी कीच से तुम सानते हमको गए..
हमने तुम्हारे पाप को भी शीश पर अपने चढ़ाया.
किंतु तुमने तो हमेशा दीप औरों का बुझाया..
आज खाली पेट नंगी पीठ हम दर पर खड़े.
आपके संकेत पर लाठी पडीं कोड़े पड़े..
न्यायकर्ता क्या बताएँ भूख का कर्तव्य क्या?
अब अगर हम हाथ में बंदूक लें अपराध क्या?
आज तक हम ही तुम्हें निज रक्त पर पोसा किए.
अब तुम्हारे रक्त से जन-द्रोपदी का स्नान हो!!
शनिवार, 13 नवंबर 2010
भाषाहीन
मेरे पिता ने बहुत बार मुझसे बात करनी चाही
मैं भाषाएँ सीखने में व्यस्त थी
कभी सुन न सकी उनका दर्द
बाँट न सकी उनकी चिंता
समझ न सकी उनका मन
आज मेरे पास वक़्त है
पर पिता नहीं रहे
उनकी मेज़ से मिला है एक ख़त
मैं ख़त को पढ़ नहीं सकती
जाने किस भाषा में लिखा है
कोई पंडित भी नहीं पढ़ सका
भटक रही हूँ बदहवास आवाजों के जंगल में
मुझे भूलनी होंगी सारी भाषाएँ
पिता का ख़त पढ़ने की खातिर
पछतावा
हम कितने बरस साथ रहे
एक दूसरे की बोली पहचानते हुए भी चुपचाप रहे
आज जब खो गई है मेरी ज़ुबान
तुम्हारी सुनने और देखने की ताकत
छटपटा रहा हूँ मैं तुमसे कुछ कहने को
बेचैन हो तुम मुझे सुनने देखने को
हमने वक़्त रहते बात क्यों न की
रविवार, 7 नवंबर 2010
अबोला
बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे
कान फटे जाते थे
फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना
कभी मुझसे छिपा नहीं रहा
तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं
दिल से सुनता था
बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे
मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है
कान फटे जाते थे
फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना
कभी मुझसे छिपा नहीं रहा
तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं
दिल से सुनता था
बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे
मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है
और कब तक
मैं लोकतंत्र में विश्वास रखता हूँ
किसी की आज़ादी में कटौती मुझे स्वीकार नहीं
उसे बंदूक चलाने की आज़ादी चाहिए
मेरी खोपड़ी उड़ाने के लिए
मेरे हाथ बँधे हैं, उसके खुले
किसी की आज़ादी में कटौती मुझे स्वीकार नहीं
उसे बंदूक चलाने की आज़ादी चाहिए
मेरी खोपड़ी उड़ाने के लिए
मेरे हाथ बँधे हैं, उसके खुले
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
पहले तीन दीवे
सुनो!
एक दीवा दरवाज़े पर ज़रूर रख देना.
और हाँ,
एक दीवा रास्ते के अंधे मोड़ पर भी.
तब तक मैं
आकाशदीप बाल आता हूँ.
!!ज्योतिपर्व मंगलमय हो!!
सोमवार, 1 नवंबर 2010
प्रेतानुभूति
अभी उस रात मैं मर गया
घूमते घामते फिर अपने नगर गया
मेरा सबसे प्रिय मित्र सुख की नींद सोया था,
मुझे अच्छा लगा
मुझे शांति मिली
धूप चढ़े मेरी खिड़की में चावल चुगने आता कबूतर
बहुत बेचैन दिखा
चोंच घायल कर ली थी तस्वीर से टकरा कर,
मुझे बहुत खराब लगा
मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी
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