सृजन की चाह
अपनी अस्मिता की खोज है केवल!
जब त्वचा छूती किसी भी पुष्प को
दूब, तृण को
रेत को
या पत्थरों को भी,
एक सिहरन दौड़ती सारी शिराओं-
धमनियों में
फिर छुएँ
फिर - फिर छुएँ
फिर ना छुएँ
बोलने लगता उमगता रक्त,
वह पल
अभिव्यक्ति का पल
है सृजन का पल !
तैरते हैं रंग यों तो आँख के आगे
सभी
पर कभी जब रंग कोई
पुतलियों के पार जाकर स्वप्न
में तिरने लगे
चेतना के गहन तल पर
ऊर्जा का इंद्रधनु खिलने लगे
अवसाद की हर घनघटा चिरने लगे
ज्योति से संकल्प शिव की,
बस वही (पल)
अभिव्यक्ति का पल
है सृजन का पल !
प्राणवाही गंध कोई
प्राण में ऐसी बसे
रागिनी बजने लगे
यों तार साँसों का कसे
मन हिरन व्याकुल फिरे
नित दौड़ता नख-शिख
और थक कर बैठ जाए
नाभि में सिर को धरे,
वह विकलता
दौड़ पगली
वह पराजयबोध,
वह अचानक प्राप्ति का सुख,
बस वही (पल)
अभिव्यक्ति का पल
है सृजन का पल !
आत्मा प्यासी जनम की
खोजती फिरती
नदी, सरवर, कूप
कंठ में काँटे उगाती
ज़िन्दगी की धूप
और जब मिलती नदी तो
शब्दभेदी बाण कोई
प्राण-पशु को बींध जाता
प्यास पर मरती नहीं
या कभी सरवर मिले तो
यक्ष कोई सामने आ
प्रश्न सारे दाग देता
औ' तृषा कीलित पड़ी
मूर्च्छित तड़पती
खोज जल की नित्य चलती
तब कहीं मिलता कुआँ,
वह झील नीली -
ओक से पीकर जिसे
चिर तृप्ति का अहसास हो
दूध की वह धार निर्मल
वह सुधा से सिक्त आँचल
बस वही पल
अभिव्यक्ति का पल
है सृजन का पल !
टूटता है मौन
सीमा टूटती है,
देह घुल जाती दिशाओं में
और केवल शून्य बचता है-
विदेही,
शून्य में से जब प्रकटते शब्द तारे
बस वही पल
अभिव्यक्ति का पल
है सृजन का पल !
एक दुर्लभ पल वही मुझको मिला था
आज तुमको सौंपता ,
स्वीकार लो निश्छल,
बस यही पल
अभिव्यक्ति का पल
है सृजन का पल !
(२१/३/२००४)