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गुरुवार, 31 मई 2012
नरपिशाच मैं
वह मेरे पास आया
बैठ गया
हम दोनों बैठे रहे
देर तक बस यूँ ही
बिना कुछ कहे
.
एक बेमुस्कान सी मुस्कान थी
दोनों के चेहरे पर
एक शांति की छाया सी .
मैंने अपना हाथ बढ़ाया उसकी ओर
उसने रख दिया अपना हाथ मेरी हथेली पर
मैंने दूसरे हाथ की तर्जनी का नाखून
गड़ा दिया उसकी कोमल कलाई में
नस कट गई
खून हो गया
रक्तपान कर
मैं
बन गया हूँ पिशाच
लटका अंधकूप में उल्टा
अब शव भक्षण की बारी है
[कुमार लव की ''आदमखोर'' सिरीज़ की प्रेरणा से]
बैठ गया
हम दोनों बैठे रहे
देर तक बस यूँ ही
बिना कुछ कहे
.
एक बेमुस्कान सी मुस्कान थी
दोनों के चेहरे पर
एक शांति की छाया सी .
मैंने अपना हाथ बढ़ाया उसकी ओर
उसने रख दिया अपना हाथ मेरी हथेली पर
मैंने दूसरे हाथ की तर्जनी का नाखून
गड़ा दिया उसकी कोमल कलाई में
नस कट गई
खून हो गया
रक्तपान कर
मैं
बन गया हूँ पिशाच
लटका अंधकूप में उल्टा
अब शव भक्षण की बारी है
[कुमार लव की ''आदमखोर'' सिरीज़ की प्रेरणा से]
शुक्रवार, 25 मई 2012
परंपरा
वे पृथ्वी हैं-
सब सहती हैं
चुप रहती हैं,
वे गाय हैं-
दूध देती हैं
बछड़े भी देती हैं,
हम युद्ध करते हैं
उनकी खातिर
और फिर
लगाते हैं चौराहों पर
उनकी बोली।
हम इसके लिए शर्मिंदा नहीं हैं,
यह तो हमारी परंपरा है-
गौरवशाली परंपरा!
वे सदा से
चलती आई हैं
हमारे साथ
झेलने के लिए
हर देश-निकाला,
हर एक अज्ञातवास
और हर एक अभिशाप-
कभी जानकी बनकर,
कभी द्रौपदी बनकर
तो कभी शैव्या बनकर।
आखिर यही तो
उनका धर्म है न !
और हमारा धर्म?
हमारा धर्म क्या है??
क्या है हमारा धर्म???
छोड़ आते रहे हैं हम उन्हें
बियाबान में
पंचतत्वों के हवाले,
गर्भवती होने पर।
चढ़े चले जाते हैं हम
कुत्तों की ज़ंजीर थामे
स्वर्ग के सोपान पर,
छोड़कर उनके एक एक अंग को
बर्फ में गलता हुआ।
और जब वे आती हैं
आधी साडी़ में लपेटे हुए
हमारे अपने बच्चों की लाश को,
वसूलते रहे हैं हम
पूरा पूरा टैक्स
मसान के पहरेदार बनकर
बची खुची आधी साड़ी से।
और हम
इसके लिए कतई शर्मिंदा नहीं हैं,
आखिर यह हमारी परंपरा है-
गौरवशाली परंपरा!
नीलाम किया है हमने
अपनी रानियों तक को
बनारस के चौराहों पर
सत्यवादी हरिश्चंद्र बनकर।
बोली लगाई है हमने
चंपा की राजपुत्री चंदनबालाओं तक की
कौशांबी के बाज़ारों में
धनपति नगरसेठ बनकर।
कभी.......
किसी नीलामी पर
किसी बोली पर
किसी को ऐतराज़ नहीं हुआ,
कोई आसन नहीं डोला,
कोई शासन नहीं बोला,
और न ही कभी
एक भी सवाल उठा-
किसी संसद में।
फिर अब क्यों बवाल उठाते हो?
कुछ नया तो नहीं किया हमने ;
कुछ लड़कियों, कुछ औरतों को-
(कुछ ज़मीनों, कुछ गायों को)-
नीलाम भर ही तो किया है
एलूरु के बाज़ारों में,
आंध्र के गाँवों की हाटों में।
इसमें नया क्या है?
क्यों बवाल मचाते हो??
क्यों सवाल उठाते हो???
हम तो इसके लिए शर्मिंदा नहीं हैं,
यही तो हमारी परंपरा है-
गौरवशाली परंपरा!
http://bit.ly/K5HUpx
सोमवार, 14 मई 2012
बुधवार, 2 मई 2012
बातों ही बातों में अरे, यह क्या हुआ, ऋषभ?
बातों ही बातों में अरे यह क्या हुआ ऋषभ
खिलता हुआ गुलाब अँगारा हुआ ऋषभ
कल तक था जिनकि आँख का तारा हुआ ऋषभ
उनकी हि आज आँख का काँटा हुआ ऋषभ
कोई न साथ दे सका इस प्रेम पंथ में
तलवार-धार पर सदा चलना हुआ ऋषभ
किरणों के रंग फर्श प' गिर कर चटक गए
ज्यों इंद्रधनुष काँच का टूटा हुआ ऋषभ
पल पल धुएँ में दोस्तो! तब्दील हो रहा
बचपन के प्रेमपत्र-सा जलता हुआ ऋषभ
छू जाएँ तेरे होंठ कभी भूल से कहीं
इस चाह में तन त्याग के प्याला हुआ ऋषभ
लहरों प' प्यार-प्यार-प्यार-प्यार लिख रहा
कहते हैं लोग-बाग दीवाना हुआ ऋषभ
खिलता हुआ गुलाब अँगारा हुआ ऋषभ
कल तक था जिनकि आँख का तारा हुआ ऋषभ
उनकी हि आज आँख का काँटा हुआ ऋषभ
कोई न साथ दे सका इस प्रेम पंथ में
तलवार-धार पर सदा चलना हुआ ऋषभ
किरणों के रंग फर्श प' गिर कर चटक गए
ज्यों इंद्रधनुष काँच का टूटा हुआ ऋषभ
पल पल धुएँ में दोस्तो! तब्दील हो रहा
बचपन के प्रेमपत्र-सा जलता हुआ ऋषभ
छू जाएँ तेरे होंठ कभी भूल से कहीं
इस चाह में तन त्याग के प्याला हुआ ऋषभ
लहरों प' प्यार-प्यार-प्यार-प्यार लिख रहा
कहते हैं लोग-बाग दीवाना हुआ ऋषभ
पूर्णकुंभ- अगस्त 2002 - आवरण पृष्ठ
मंगलवार, 1 मई 2012
याद आए तो नहीं आँसू बहाना
याद आए तो, नहीं आँसू बहाना
क्यारियों को सींचना, गुलशन सजाना
चित्र तो मैंने जला डाले सभी अब
पत्र सारे तुम नदी में फेंक आना
लोग हाथों में लिए पत्थर खड़े हों
किंतु तुम निश्चिंत हो हँसना हँसाना
फूल-सा बच्चा कहीं सोता दिखे तो
चूम लेना भाल, लेकिन मत जगाना
यह नहीं इच्छा कि मुझको याद रक्खो
मित्र, पर अपराध मेरे भूल जाना
क्यारियों को सींचना, गुलशन सजाना
चित्र तो मैंने जला डाले सभी अब
पत्र सारे तुम नदी में फेंक आना
लोग हाथों में लिए पत्थर खड़े हों
किंतु तुम निश्चिंत हो हँसना हँसाना
फूल-सा बच्चा कहीं सोता दिखे तो
चूम लेना भाल, लेकिन मत जगाना
यह नहीं इच्छा कि मुझको याद रक्खो
मित्र, पर अपराध मेरे भूल जाना
पूर्णकुंभ - जून 2001- आवरण पृष्ठ
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