प्रभो!
तुम्हारे कुत्तों ने बहुत सताया है मुझे
जाने कहाँ से निकल कर चुपचाप
चलने लगते हैं बचपन से ही
मेरे साथ साथ
कभी आगे कभी पीछे
मेरी पद चाप
मेरी देह गंध
इन तक दूर से पहुँच जाती रही है
और ये झपटते रहे हैं मुझ पर अचानक घात लगाकर
गली खेत गाँव घर शहर ही नहीं
सारे धरम करम भरम में भी
सपनों तक में
मुझे इनकी आवाजे अकेला नहीं होने देतीं
सुरक्षित नहीं महसूसने देतीं
और तुम कहते हो ये मेरी सुरक्षा के लिए हैं
घोर अंधेरी रात में
आवाजें उनकी बहुत दूर लगती रहती हैं
पर वे झपट पड़ते हैं अचानक बहुत नज़दीक से
मैं कूद पड़ता हूँ पर्वत शिखर से गहरी नदी में
मुझे तैरना नहीं आता
पानी भरता चला जाता है मेरे मुँह में
नाक कान आँख में
मेरे भीतर भौंकने लगते हैं हज़ारों कुत्ते एक साथ
यही कुत्ता-गति होनी थी मेरी
तो मुझे मानुष-देह क्यों दी थी भला ?