मत्स्य
जब कभी मानवता
दानव के वक्ष तले पिसती है,
अंबर के आँसू से
धरती की छाती फटती है.
जब दसों दिशाएँ प्रलय-प्रलय के
रव से भर जाती हैं,
जब संघर्षी वेला में हारे
मनु की आँखें भर आती हैं !
तब जीवन
की साँसों में
नवयुग के
सूत्र उभरते हैं,
मानवता
को संबल देकर
अंबर तक
जाते तिरते हैं !
2
कूर्म
जब कभी असत् सत् पर
विजयी होने लगता है,
पशु के पैंने सींगों से
मानव का वक्ष चिरा करता है.
जब कभी जीवनी शक्ति
पशु के इंगित पर नाचा करती है,
जब कूटनीति की कालसर्पिणी
सरलों पर जहर उगलती है.
जब कभी डूबने लगते
सागर में भूधर !
तब कुछ
अभूतपूर्ण करने को
यौवन की
शक्ति मचलती है,
मानव
विकास की परंपरा
आगे बढ़ती जाती है,
बन कूर्म
जवानी, कवचों पर
पर्वत का
भार उठाती है.
तब यौवन
की मादकता में
शिव सारा
विष पी जाते हैं,
विष पी
नवयुग के सूत्रधार
अम्मृतधारा
बरसाते हैं.
3
वराह
जब कभी धरा को
पाप डुबोने लगते हैं,
सत्ता की आँखों में
जब दैत्य उतर आता है.
बस स्वर्ण-स्वर्ण के स्वर ही
महलों में सुनने लगते हैं,
सूनापन अंबर से आकर
कुटियों में मौज मनाता है.
जब शृंगारी गीतों के नीचे
हाहाकार दबा करता है,
कामुकता के दरवाजे
भावुकता पानी भरती है.
तब धरती का रूप सलोना
अंगारे
उगला करता है,
तब नभ से, अंधी सत्ता पर
भारी बिजली गिरती है.
ऊँचे आसन का अहंकार
तब यौवन को सुलगाता है,
रक्त-शोषकों के भवनों में
तब यौवन आग लगाता है.
नव यौवन के प्राणों में
तब अक्षर ब्रह्म वराह
अवतीर्ण हुआ करता है,
यौवन – अक्षय यौवन – ही
नवयुग का समारंभ करता है.
4
नृसिंह
जब कभी
निजीवृत्तों में बंदी ससीम
इतराने लगता है सीमाओं में,
सीमाओं के बंधन को
वह मुक्ति मानता है.
सपनों के स्पर्शों को
वह सत्य मानता है,
नश्वर फूलों की पंखुड़ियों के
फीके रंगों को
नित्य मानता है.
वह नहीं हिचकता करने से
बधियाकरण बुद्धि का भी !
जब सच के साधक प्रह्लादों को
सर्पों से डसवाया जाता है,
सत्ता के हाथी के पैरों से
कुचलाया जाता है,
उत्कर्षों के सागर में
फिंकवाया जाता है.
जब सच कहने वालों को
कूटनीति की होली
जीवित ही ज्वलित अग्नि में
धर देती है.
तब फिर
यौवन की सरिता
बलखाकर
अंगड़ाई लेती है.
फट पड़ते
हैं महाखंभ भी.
यौवन के
कंठों से
केवल
सिंहों की घोर गर्जन की
ध्वनि-प्रतिध्वनि
ही
हर ओर
सुनाई देती है.
फिर
सरिता की बाढ़ उतर जाने पर
नवयुग की
जन्मभूमि
दिखाई
देती है.
5
वामन
जब बर्बरता कोमलता का
शोषण करने लगती है,
जब सबलों की निर्ममता से
अबला की ममता डरने लगती है.
जब कभी पुरातन पीढ़ी
हाथों में पहन-पहन चूड़ी
सत्ता की अंतरंग सखी बनकर
अंतःपुर में
शासन के चरण चाँपने लगती है.
तब नव
पीढ़ी के बौने बीजों से
महाविराट
अक्षयवट की
सृष्टि
हुआ करती है :
जड़ जिसकी
पाताल छुए,
ब्रह्मांड
चीर जाए फुनगी !
जिस युग
में चौदह भुवनों में
शासन बस
यौवन का हो,
उस युग
के अंकुर
बौने
मानव के मानस में से ही तो
फूटा
करते हैं.
6
परशुराम
जब नभचुंबी भवनों का अंधकार
अपनी सहस्र बाहुओं से
कुटियों के नन्हें दीपों को
छीन लिया करता है.
जब अस्त्रों की आसुरी शक्ति
आत्मा के सात्विक प्रकाश को
निस्तेज किया करती है.
तब
कुटिया ही
नवयुग के संस्थापक को
जन्म दिया करती है.
तब धूल-सने
परशु का महाफलक
महलों के ऊँचे मुकुटों को
धरती की धूल दिखता है,
शोषक का रक्त सींच
धरती को
नूतन मूल्यों की खेती के योग्य बनाता है.
7
राम
जब मानव के मन में
आदिम अंधकार की आँधी
उभर-उभर आती है,
चेतनता के नूतन सोपानों पर
मानवता पग नहीं बढ़ा पाती है.
भावुकता का क्षण जब
कर्तव्य मार्ग में रोड़े अटकाता है.
जब मिट्टी की लाज
स्वर्ण के हाथों अपहृत होती है,
जब शांति-नीति की शिक्षा
वैरों के बिरवे बोती है.
तब नवयुग के जनक
झेलकर सब प्रहार तपसी तन पर
भावी पीढ़ी को आदर्श दिया करते हैं,
अनुरंजन को जन-गण के
वे राजा भी –
अपने मन पर
अत्याचार किया करते हैं.
पावन पावक का साक्ष्य !
रामराज्य ! प्रजातंत्र !! आदर्श !!!
धरा की छाती फटती है,
राम पर मौन खड़े कहते :
भावना से कर्तव्य महान.
विश्व में कहीं नहीं उपमान !
8
कृष्ण
जब शादी के डोले में सिसक रही
सिंदूरी नववधुओं की वेणी
निर्ममता से खींची जाती है,
ममता जब नवजात बालकों को
कंसों से नहीं बचा पाती है.
शासन अंधा हो जब
निर्धन ग्वालों पर
अत्याचार किया करता है.
शासन के निर्मम हाथ
खींचते रजस्वलाओं की साड़ी,
धर्म हो जाता निर्वासित,
अधर्म से जन-गण शासित !
तब कारागारों के बंधन में
मानव चरित्र का चरमोत्कर्ष
देह धारण करता है.
बंधन की प्रतिक्रिया
मुक्ति का संदेश विश्व को देती.
ज्ञान का चक्र
तिमिर का मूलोच्छेदन करता है.
विश्व में अधिकारों की होड़ !
दिग्भ्रमित है सारा संसार,
कृष्ण पर भारत से कहते :
कर्म ही है तेरा अधिकार.
9
बुद्ध
जब सिंहासन का स्वार्थ
काट देता बच्चों को
युग के यथार्थ से,
समय के सत्य से.
सिद्धार्थों को भरमाया जाता है
सुरा के चषकों में,
सुंदरियों के अपांगों में,
सुवर्ण की चमकारों में,
और
नहीं जानने दिया जाता –
एक दुर्निवार असाध्य रोग
पल रहा सभी के तन-मन में,
खोखला होता जा रहा
भीतर ही भीतर
यह सुंदर निर्माण
ढह जाने की हद तक,
काल ने फैला रक्खी
मौत की सफ़ेद चादर
सृष्टि के इस छोर से
उस छोर तक.
तब झनझनाकर टूटते हैं
मदिरा के प्याले,
रमणियों के बाहुपाश
व्यर्थ चले जाते हैं.
कनक-धतूरे के नशे को
जैसे पीलिया मार जाता है.
अँगड़ा कर उठता है यौवन
और माँगता है
अपना सब कुछ जानने का अधिकार.
राजभवन, वैभव
और विलास की तिकड़ी
छूट जाती है पीछे
और बुद्ध खुली हवा में
गाँव के सिवाने पर
सभी के दुःख-दर्द के साक्षी
एक बूढ़े वटवृक्ष की छाँह में
किसी कृषकबाला के परोसे अन्न में
निर्वाण के सूत्र ढूँढ़ते हैं;
अपनी पहचान ढूँढ़ते हैं;
सत्य का दर्शन करते हैं
और नई लीक खींचते हैं
मनुष्य की मुक्ति के पथ में !
10
कल्कि
जब हो सभ्यता का इतना उत्कर्ष
कि वह आत्मा का अपकर्ष बने.
आदमी आदमी न रहे,
या तो भेड़ बन जाए
या भेड़िया.
सबके सींग उगे हों,
सब दाँतों वाले हों,
सब खून पीते हों,
केवल अपने और अपने लिए ही जीते हों.
समय का चक्र वक्र गति से
विपरीत दिशा में दौड़ता हो
और मनुष्यता
पशुधर्म बनती जा रही हो.
तब फिर-फिर
आशा की प्राण-प्रतिष्ठा
करता है यौवन ही.
सफ़ेद घोड़े और
बिजली की तलवार के साथ
कूद पड़ता है यौवन
हिंस्र पशुओं के बाड़े में
और नाथ देता है एक-एक को
निर्माण की खेती में
जोतने के लिए.
सावधान !
मुक्त घूमते विनाशी नथुनों !
सावधान !
तुम्हें नाथने को यौवन आता है !!
यौवन आ रहा है !!!