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सोमवार, 5 सितंबर 2011

बहरे देश में

१.
हर तरफ अंधे धृतराष्ट्र  हैं,
गांधारियों ने
आँखों पर पट्टी बाँध रक्खी है.
महाभारतकार की कलम
रुकी हुई है,
संजय ने चुप्पी साध रक्खी है.
कौन सुने?
कौन बताए?
शरशय्या पर पड़े भीष्मपितामह की
प्यासी आवाजों का
बहरे देश में क्या हुआ?
                  क्या न हुआ?

२.
दुर्योधन से तो कोई शिकायत नहीं,
लेकिन वह एक युधिष्ठिर
जिसके चेहरे पर धर्मराज का मुखौटा चिपका है-
चौराहे चौराहे
अश्वत्थामा की
अनहुई मौत का
समाचार लिए घूमता है;
और उसका बड़ा भाई कर्ण
दानवीर होने का दंभ लिए
दूर-
कुरुक्षेत्र के उस छोर पर जा बैठा है .
किसी को कोई परवाह नहीं
भीष्मपितामह की  प्यासी आवाजों का
बहरे देश में क्या हुआ?
                  क्या न हुआ?

३.
उस पहले  महायुद्ध में जिसने
धरती फोड़कर गंगा निकाल दी थी
वह गांडीवधारी अर्जुन
वैरागी हो गया है;
सारा पौरुष भूल कर भीम
गोदाम में सो गया है.
अभिमन्यु
भूख के चक्रव्यूह से लड़ रहा है,
उत्तरा लकडियाँ बीन रही है
               सुबह चूल्हे के लिए,
               शाम चिता के लिए.
कृष्ण की
कौरवों से शिखर वार्त्ता चल रही है,
द्रौपदी
दु:शासन के टुकड़ों पर पल रही है.
कुंती
मोतियाबिंदभरी आँखों से देख रही है
कैसे उसके दूध का खून हुआ
और कैसे खून पानी हो गया?
कौन सुने?
कौन बताए?
शरशय्या पर पड़े भीष्मपितामह की
प्यासी आवाजों का
बहरे देश में क्या हुआ?
                  क्या न हुआ?

03 /12 /1981    

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

तू कच्ची कचनार

तू कच्ची कचनार राधिके! तू कच्ची कचनार
तू पागल बटमार कन्हैया! तू पागल बटमार

चंदा जैसा मुखड़ा तेरा , कोयल जैसे बोल
जा तू अपनी राह बटोही, करे न और मखौल
तू कोमल सुकुमार राधिके! तू कोमल सुकुमार 
तू है ठेठ गँवार कन्हैया! तू है ठेठ गँवार  

नागिन सी बलखाय किशोरी! हिरनी जैसी चाल 
साँझ भई अब मधुवन मोहे मत रोके नंदलाल!
सुन मेरी मनुहार राधिके! सुन मेरी मनुहार 
तू तो भया लबार कन्हैया! तू तो भया लबार 

चंद्र  किरण सा रूप सलोना, सोने जैसा गात 
मन को मोहे वंशीवाले! तेरी मीठी बात  
तू सुंदर सिंगार राधिके! तू सुंदर सिंगार 
तू चंचल बजमार! कन्हैया!! तू चंचल बजमार !!!

27 नवंबर 1981   


शनिवार, 30 जुलाई 2011

दीवारों के कान सजग हैं

१.

''रूप रश्मियों से नहलाकर
मन की गाँठें खोल

यौवन की वेदी पर अर्पित
क्वाँरा हृदय अमोल

प्राणों पर चुंबन अंकित हों
जीवन में रस घोल!''

                ''दीवारों के कान सजग हैं
                 धीरे धीरे बोल!!''

२.

नभ के शब्द, धरा का सौरभ
हमको छुआ करें

दुग्ध स्नात हर मधुरजनी हो
मिल कर दुआ करें

चाँदी सी किरणें छू छू कर
मनसिज युवा करें

                 दीवारों के कान सजग हैं!
                 होते! हुआ करें!!

३.

नहीं द्वार पर धूप थिरकती
और सूर्य का भान नहीं

कमरे कमरे में सीलन है
दिवा रात्रि का ज्ञान नहीं

                 दीवारों के कान सजग हैं
                 और रोशनी डरी हुई!

ऐसे घर में कौन रहेगा
जिसमें रोशनदान नहीं?

22 नवम्बर 1981  



  

दीवारों के कान

१.
चूल्हा दीपक मौन हैं
आतंकित नादान
गुप्तचरों से सजग हैं
दीवारों के कान

२.
मन की बातें जान लो
नयनों से ही प्राण
ये बजमारे सजग हैं
दीवारों के कान 

३.
जब से जन्मे जेल में
द्वापर में भगवान
तब से सुनते सजग हैं
दीवारों के कान

४.
एक चील के पंख से
जब से गिरा विमान
ध्वनियाँ सुनते सजग हैं
दीवारों के कान 


22 नवंबर 1981     

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

नीम की ओट में

नीम की ओट में जो कई खेल खेले
चुभे पाँव में शूल बनकर बहुत दिन.
वासना के युवा पाहुने जो कुँवारे
बसे प्राण में भूल बनकर बहुत दिन.
           चुंबनों के नखों के उगे चिह्न सारे
           खिले देह में फूल बन कर बहुत दिन
स्वप्न वे सब सलोने कसम वायदे वे
उड़े राह में धूल बन कर बहुत दिन.
११/११/१९८१    

बुधवार, 27 जुलाई 2011

खिला गुलमुहर जब कभी

खिला गुलमुहर जब कभी द्वार मेरे
          याद तेरी अचानक मुझे आ गई

किसी वृक्ष पर जो दिखा नाम तेरा
          जिंदगी ने कहा - ज़िंदगी पा गई

आइने ने कभी आँख मारी अगर
           आँख छवि में तुम्हारी ही भरमा गई

चीर कर दुपहरी , छाँह ऐसे घिरी
          चूनरी ज्यों तुम्हारी लहर छा गई.

   ११/११/१९८१.      

छुआ चाँदनी ने

छुआ चाँदनी ने जभी गात क्वाँरा
नहाने लगी रूप में यामिनी

कहीं जो अधर पर खिली रातरानी
मचलने लगी अभ्र में दामिनी

           चितवनों से निहारा तनिक वक्र जो
           उषा-सांझ पलकों की अनुगामिनी

तुम गईं द्वार से घूँघटा खींचकर
तपस्वी जपे कामिनी-कामिनी

११/११/१९८१  

शुक्रवार, 3 जून 2011

मुलाकाती

मैं आज उससे मिलने गया था
बहुत लंबी लाइन थी
मैं भी लग गया
सुबह से शाम हो गई
पोस्टर देखता खड़ा रहा
वह चला भी गया
मुझसे चला नहीं जाता;
आक थू ! 

सोमवार, 30 मई 2011

कुर्सी : रोटी

कुर्सी मुकुट और दरबार 
रोटी पेटों की सरकार 
       कुर्सी भरे पेट का राज 
       रोटी भूखों की आवाज़ 
              कुर्सी सपनों का संसार 
              रोटी मजबूरी-बेगार 


 कुर्सी शीश चढ़े कुछ फूल 
रोटी पाँव चुभे कुछ शूल 
              कुर्सी रक्त-रक्त की प्यास 
                रोटी स्वेद कणों की आस 
                           कुर्सी ज़हरीला इतिहास 
                          रोटी सुकराती विश्वास 

कुर्सी अकबर की बंदूक
रोटी राणा की इक चूक 
       कुर्सी सतसइया सिंगार
       रोटी भूषण की हुंकार  
              कुर्सी जलियाँवाला बाग़
              रोटी ऊधमसिंह की आग 


   कुर्सी जिन्ना: की तकरार 
रोटी गांधी का अवतार 
              कुर्सी धर्मों का संग्राम 
               रोटी हडताली आसाम 
                              कुर्सी सोया देश तमाम 
                               रोटी जागृति का पैगाम
31 अक्टूबर,1981  

मंगलवार, 24 मई 2011

हर छत पर लटकी चमगादड़, दीवारों पर जाले हैं



हर छत पर लटकी चमगादड़, दीवारों पर जाले हैं
हर लौ घर की ही दुश्मन है, दीपक जो भी बाले हैं

बाँहों में थिरके है तन पर
मन का पंछी तड़प रहा
होंठ-होंठ मुस्कान धरी पर
शूल आँख में कसक रहा
              संबंधों की कौन कहेगा
              व्यापारिक अनुबंध हुए!
यहाँ हिमालय के भीतर ही
आतुर लावा दहक रहा

दूध-चांदनी में धुलकर भी,  सारे गजरे काले हैं
हर छत पर लटकी चमगादड़, दीवारों पर जाले हैं

विश्वासों की मौन बालिका
दुष्यंतों से छली गई
और इत्र बन जाने खातिर
बिना खिली हर कली गई
                शहनाई की आवाजें हैं
                सभी दृष्टियाँ सूनी हैं!
किसकी डोली उठी न जाने
किसकी अर्थी चली गई

गाए कौन मल्हार-मर्सिया, शब्द-शब्द पर ताले हैं
हर लौ घर की ही दुश्मन है, दीपक जो भी बाले हैं

28 अक्टूबर 1981