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बुधवार, 26 जनवरी 2011

जीवन समर में

जीवन-समर में जब गिरा मित्रों के घात से
हर घाव को सहला गए बस तेरे हाथ थे

रक्षा-कवच बना दिया आँचल की छाँव से
वरना मैं कैसे झेलता दिन-रात हादसे

पाँवों में शूल जो चुभे पलकों से चुन लिए
वनवास की हर राह में हम साथ-साथ थे

मैं रेत-रेत हर दिशा में दौड़ता फिरा
मधु गंध रूप रस बने तुम मेरे साथ थे

लहरों से लड़के आ गया इस पार चूंकि जब
मैं डूब रहा था तो तुम भी मेरे साथ थे
28 मार्च 2004 

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

रक्षा-कवच बना दिया आँचल की छाँव से
वरना मैं कैसे झेलता दिन-रात हादसे


सच है, आंचल का बड़ा सहारा होता है - चाहे वह मां को हो या पत्नी का॥

शिवा ने कहा…

बहुत सुंदर कविता

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@cmpershad
@shiva

हर आदमी को कभी न कभी वनवास जीना पड़ता है. तब अगर कोई एक भी सच्चा रिश्ता आपका साथ दे दे तो देशनिकाला भी स्वर्ग बन जाता है.

सराहना के लिए आभार .