'न' कहने की सज़ा- उन्होंने जोरों से घोषणा की :अब से तुम आजाद हो,अपनी मर्जी की मालिक.- मुझे लगा,मैं अब अपने सारेनिर्णय ख़ुद लूंगी,इन देवताओं का बोझ कंधों पर न ढोना पड़ेगा.-मैंने खुले आसमान में उड़ान भरी ही थीकि फ़रिश्ते आ गए.बोले-हमारे साथ चलो.हम तुम्हें अमृत के पंख देंगे.-मैंने इनकार कर दिया.मेरा अकेले उड़ने का मन था.-फ़रिश्ते आग-बबूला हो गए.उनके अमृतवर्षी पंख ज्वालामुखी बन गए.गंधक और तेजाब की बारिश में मैं झुलस गई.-सर्पविष की पहली ही फुहार ने मेरी दृष्टि छीन लीऔर मेरी त्वचा को वेधकर तेजाब की जलनएक एक धमनी में समाती चली गई.-मैं तड़प रही हूँ.फ़रिश्ते जश्न मना रहे हैं - जीत का जश्न.-जब जब वे मुझसे हारे हैंउन्होंने यही तो किया है.-जब जब मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी ,जब जब मैंने उन्हें 'ना' कहा,तब तब या तो मुझेआग के दरिया में कूदना पड़ाया उन्होंने अपने अग्निदंश सेमुझे जीवित लाश बना दिया.-जब जब मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी,जब जब मैंने उन्हें 'ना' कहातब तब या तो मुझे धरती में समाना पडाया महाभारत रचाना पड़ा.-मैंने कितने रावणों के नाभिकुंड सोखेकितने दुर्योधनों के रक्त से केश सींचेकितनी बार मैं महिषमर्दिनी से लेकर दस्युसुंदरी तक बनीकितनी बार....कितनी बार...-पर उनका तेजाब आज भी अक्षय हैघृणा का कोश लिए फिरते हैं वे अपने प्राणों में ;और जब भी मेरे होठों से निकलती है एक 'ना'तो वे सारी नफरतसारा तेजाबउलट देते हैं मेरे मुँह पर .-मैं अब नरक में हूँअन्धकार और यातना के नरक में .-अब मुझे नींद नहीं आतीआते हैं जागती आँखों डरावने सपने.नहीं,उड़ान के सपने नहीं,आग के सपनेतेजाब के सपनेसाँपों के सपनेयातनागृहों के सपनेवैतरणी के सपने .-यमदूतो ! मुझे नरक में तो जीने दो!!
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रविवार, 20 दिसंबर 2009
'न' कहने की सज़ा
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