तुम सदा आक्रोश में भरकर
मिटाने पर उतारू हो;
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
o
पत्थरों में गुल खिलाए
पानियों में बिजलियाँ ढूँढीं,
रेत से मीनार चिन दी
बादलों को चूमने को,
सिंधु को मैंने मथा है
और अमृत भी निकाला.
तुम सदा से बेल विष की ही
उगाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
o
मैं धरा को बाहुओं पर तोलता हूँ,
हर हवा में स्नेह-सौरभ घोलता हूँ;
मैं पसीना नित्य बोता हूँ,
स्वर्ण बन कर प्रकट होता हूँ;
आग के पर्वत बनाए पालतू मैंने,
हिमशिखर पर घर बना निश्चिंत सोता हूँ.
और तुम चुपचाप आकर
भूमि को थर-थर कँपाते,
भूधरों को ही नहीं,
नक्षत्र-मंडल को हिलाते.
तुम विनाशी शक्तियों के पुंज हो;
तुम कभी दावाग्नि, बड़वानल कभी;
तुम महामारी, महासंग्राम तुम.
तुम सदा से मृत्यु का जादू
जगाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
o
लोग रोते हैं बिलख कर
तो तुम्हें संतोष मिलता.
डूबती जब नाव, मरते लाख मछुआरे,
तुम्हें संतोष मिलता.
आदमी जब ज़िंदगी की भीख माँगे,
हादसा जब आदमी को कील टाँगे;
हर दिशा में रुदन-क्रंदन,
आदमी की शक्तियों का
शक्ति भर मंथन,
तब तुम्हें संतोष मिलता.
बालकों के आँसुओं पर मुस्कराते हो,
औरतों की मूर्च्छना पर राग गाते हो;
झोंपड़ी की डूब पर आलाप भरते हो,
लाख लाशों को गिरा शृंगार करते हो;
सोचते हो आज तुम जीते-
हराया आदमी को,
सोचते हो आज तम जीता -
हराया रोशनी को.
पर नहीं! तुम जानते हो -
मैं सदा ही राख में से जन्म लेता हूँ,
ध्वंस के सिर पर उगाता हूँ नई कलियाँ;
दर्द हैं, संवेदना, अनुभूतियाँ हैं पास मेरे,
चीर कर अंधड़, बनाता हूँ नई गलियाँ.
ओ प्रलय सागर!
तुम्हारी रूद्र लहरों को प्रणाम!
काल-जिह्वा-सी
'सुनामी' क्रुद्ध लहरों को प्रणाम!
तुम कभी नव वर्ष में भूकंप लाते हो,
तो कभी वर्षांत में तांडव मचाते हो!
तुम महा विस्तीर्ण, अपरंपार हो, निस्सीम हो!
जानता हूँ मैं कि छोटा हूँ बहुत ही तुच्छ हूँ,
पर तुम्हारे सामने
मैं सिर उठाए फिर खड़ा हूँ;
हूँ बहुत छोटा भले
पर मौत से थोड़ा बड़ा हूँ.
तुम सदा रथचक्र को उलटा
चलाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
-फरवरी 2005-
मिटाने पर उतारू हो;
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
o
पत्थरों में गुल खिलाए
पानियों में बिजलियाँ ढूँढीं,
रेत से मीनार चिन दी
बादलों को चूमने को,
सिंधु को मैंने मथा है
और अमृत भी निकाला.
तुम सदा से बेल विष की ही
उगाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
o
मैं धरा को बाहुओं पर तोलता हूँ,
हर हवा में स्नेह-सौरभ घोलता हूँ;
मैं पसीना नित्य बोता हूँ,
स्वर्ण बन कर प्रकट होता हूँ;
आग के पर्वत बनाए पालतू मैंने,
हिमशिखर पर घर बना निश्चिंत सोता हूँ.
और तुम चुपचाप आकर
भूमि को थर-थर कँपाते,
भूधरों को ही नहीं,
नक्षत्र-मंडल को हिलाते.
तुम विनाशी शक्तियों के पुंज हो;
तुम कभी दावाग्नि, बड़वानल कभी;
तुम महामारी, महासंग्राम तुम.
तुम सदा से मृत्यु का जादू
जगाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
o
लोग रोते हैं बिलख कर
तो तुम्हें संतोष मिलता.
डूबती जब नाव, मरते लाख मछुआरे,
तुम्हें संतोष मिलता.
आदमी जब ज़िंदगी की भीख माँगे,
हादसा जब आदमी को कील टाँगे;
हर दिशा में रुदन-क्रंदन,
आदमी की शक्तियों का
शक्ति भर मंथन,
तब तुम्हें संतोष मिलता.
बालकों के आँसुओं पर मुस्कराते हो,
औरतों की मूर्च्छना पर राग गाते हो;
झोंपड़ी की डूब पर आलाप भरते हो,
लाख लाशों को गिरा शृंगार करते हो;
सोचते हो आज तुम जीते-
हराया आदमी को,
सोचते हो आज तम जीता -
हराया रोशनी को.
पर नहीं! तुम जानते हो -
मैं सदा ही राख में से जन्म लेता हूँ,
ध्वंस के सिर पर उगाता हूँ नई कलियाँ;
दर्द हैं, संवेदना, अनुभूतियाँ हैं पास मेरे,
चीर कर अंधड़, बनाता हूँ नई गलियाँ.
ओ प्रलय सागर!
तुम्हारी रूद्र लहरों को प्रणाम!
काल-जिह्वा-सी
'सुनामी' क्रुद्ध लहरों को प्रणाम!
तुम कभी नव वर्ष में भूकंप लाते हो,
तो कभी वर्षांत में तांडव मचाते हो!
तुम महा विस्तीर्ण, अपरंपार हो, निस्सीम हो!
जानता हूँ मैं कि छोटा हूँ बहुत ही तुच्छ हूँ,
पर तुम्हारे सामने
मैं सिर उठाए फिर खड़ा हूँ;
हूँ बहुत छोटा भले
पर मौत से थोड़ा बड़ा हूँ.
तुम सदा रथचक्र को उलटा
चलाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.
-फरवरी 2005-