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रविवार, 16 जुलाई 2023

(समीक्षा) अनुवाद का अनुवर्ती मूल! ◆ डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

 



अनुवाद का अनुवर्ती मूल! 

  • डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा



मेरे सामने दो किताबें हैं - 2021 में छपी "In Other Words" और 2023 में छपी "इक्यावन कविताएँ"।  पहली किताब दूसरी का अनुवाद है। लेकिन पुस्तक के रूप में दूसरी बाद में प्रकाशित हुई है। दरअसल 'In Other Words' में कवि ऋषभदेव शर्मा की इक्यावन कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद शामिल है। संपादक और अनुवादक हैं गोपाल शर्मा। इन कविताओं के मूल पाठ से बनी दूसरी किताब के भी संपादक और प्रस्तावना लेखक वही हैं। उनका दावा है कि ये कविताएँ उन्होंने अंग्रेजी कविता-संस्कार वाले पाठकों के मिजाज को ध्यान में रखकर डॉ. ऋषभदेव शर्मा के 7 हिंदी कविता संकलनों में से अपनी रुचि के अनुसार चुनी हैं।  


मेरा भी मानना है कि विषयवस्तु और काव्यभाषा दोनों की दृष्टि से ये कविताएँ ऋषभदेव शर्मा की अन्य कविताओं से कुछ भिन्न या विशिष्ट अवश्य हैं। संग्रह की पहली कविता 'कुत्ता गति',  जिसका अनुवादक ने 'A few lines of Doggerel' शीर्षक से अनुवाद किया है,  इस लिहाज से बिल्कुल सही उदाहरण है - "मुझे तैरना नहीं आता/ पानी भरता चला जाता है/  मेरे मुँह में/ नाक, कान, आँख में/ मेरे भीतर भौंकने लगते हैं/ हजारों कुत्ते एक साथ।/  यही कुत्ता गति होनी थी मेरी/ तो मुझे मानुष-देहक्यों दी थी भला?" 


इस संग्रह में कवि की अति चर्चित कविता "औरतें औरतें नहीं हैं" भी शामिल है, जिसमें कवि ने बहुत गुस्से के साथ कहा है- "जानते हैं वे/ देश नहीं जीते जाते जीत कर भी/ जब तक स्वाभिमान बचा रहे/ इसीलिए/ औरतों के जननांग पर/ फ़हरा दो विजय की पताका/  देश हार जाएगा/  आप से आप।" इसी क्रम में "अश्लील है पौरुष तुम्हारा" भी उल्लेखनीय है।  कवि के अनुसार- "अश्लील है तुम्हारी यह दुनिया/  इसमें प्यार वर्जित है/  और सपने निषिद्ध/  धर्म अश्लील हैं/ घणा सिखाते हैं/ पवित्रता अश्लील है/ हिंसा सिखाती है!"


लंबी कविता "कापालिक बंधु के प्रति" अपने कथात्मक विस्तार, वैचारिक तनाव, विशिष्ट प्रतीक विधान और मिथकीय बिंब गठन के कारण खास तौर पर ध्यान खींचती है-  "तभी निकल कर आया/  पुरानी बोतलों का वह काला जादूगर/ जिसके 'गिली गिली फू' कहकर/  फूँक मारते ही/  खंडित हो जाता है इंद्रधनुष।/ टूट गया इंद्रधनुष/ फैल गया इंद्रजाल।/  अब बादलों की जगह/ तुम्हारे पैरों तले कठोर धरती थी/ मीठे झोंकों की जगह/ यथार्थ की भीषण लू थी/  महमहाती बगिया की जगह/ अगिया बेताल का नाच था।/ ××× गर्म लाल जीभ लपलपाती/  गोरी चमड़ी और नीले खून वाली/  मादकता की इन विषकन्याओं के/ ज़हरीले आलिंगन/ और मरणांतक अधर दंश के साथ/ आरंभ हुई तुम्हारी यह कापालिक घोर अघोर साधना!"


इन कविताओं की काव्य भाषा इस लिहाज से भी विशिष्ट है कि इनमें एक तरफ तो प्रेत, पिशाच, राक्षस,  नर पिशाच, कापालिक और दानव शामिल हैं तथा दूसरी ओर कंगारू, छिपकली, चींटी, मकड़ी, कौआ तथा चमगादड़ भी उपस्थित हैं। इन सबके माध्यम से कवि ने समकालीन जीवन की जटिल सच्चाइयों को सहज रूप में व्यंजित किया है। इन कविताओं में निश्चय ही वैश्विक अपील है जिसे सर्वथा निजी काव्यभाषा के सहारे कवि ने खास तराश दी है। प्रवीण प्रणव के शब्दों में मैं भी यही कहना चाहूँगी कि 

  • "खास तौर पर एक ऐसे वक़्त में जब कविताओं के विषय सिमटते जा रहे हैं और भाषा में एकरूपता आती जा रही है, इन कविताओं को पढ़ना एक सुखद अहसास है।" 


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0 डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह-आचार्य, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नै- 600017. 



शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

दर्द की कोकिला बोली

हमारी आह के काँधे, 

तुम्हारी चाह की डोली 

तुम्हारी माँग में, सजनी!

हमारे रक्त की रोली


मिटाए भी न मिट पाईं

तुम्हारे मन की बालू से

हमारी रूप रेखाएँ

बहुत धो ली, बहुत छोली


प्रथम अनुभव, प्रथम छलना 

कठिन अनुभव, कठिन छलना 

लुटी किस चक्रवर्ती से

तापसी बालिका भोली


जान पहचान थी जिससे

उम्र आसान थी जिससे 

छुड़ाकर भीड़ में अँगुली

गया वह दूर हमजोली


सहमकर और शरमाकर

तड़पकर और लहराकर 

'किया है प्यार मैंने तो'

दर्द की कोकिला बोली


#पुरानी_डायरी से

(नई दिल्ली : 7 अगस्त, 1984)

मुझको मेरा गीत चाहिए

मुझको मेरा गीत चाहिए

वही मुक्त संगीत चाहिए


        मेरे मथुरा-ब्रज-वृंदावन

        कालिंदी के तट रहने दो 

        कुरुक्षेत्र मत करो देश को

        यों न रक्त-सरिता बहने दो


रक्तजीवियों के जंगल में 

दूध नहाया मीत चाहिए


        मेरे उषा-सूक्त के गायन 

        मुझको गीता-गायत्री दो

        मेरा गौतम, मेरा गांधी

        मुझको सीता-सावित्री दो


जो विषधर को गंगा कर दे 

शिवशंकर की प्रीत चाहिए


        मत आँगन के बीच उगाओ

        नागफनी के काँटे ज़हरी

        शर संधाने  सिंधु-तीर पर 

        तत्पर मर्यादा के प्रहरी


मेरे नक्शे के त्रिकोण को

फिर से रघुकुल रीत चाहिए 000


#पुरानी_रचना (लखनऊ: 2 जून, 1984)

मंगलवार, 17 जनवरी 2023

तुमको ख़त में क्या-क्या लिक्खूँ?

 तुमको ख़त में क्या-क्या लिक्खूँ?

कब-कब हँस-हँस रोया, लिक्खूँ?


तारे गिन-गिन रातें काटीं

भोर  हुई तो सोया, लिक्खूँ? 


नेह नीर से सींच-सींच कर 

यह अक्षय वट बोया, लिक्खूँ? 


एक फूल रूमाल कढ़ा जो

ओसों खूब भिगोया, लिक्खूँ? 


दिल से दिल के इस सौदे में 

क्या पाया क्या खोया, लिक्खूँ? 


कैसे राम! तिरे वह तल पर 

तुमने जिसे डुबोया, लिक्खूँ?


मधु अपराध किया जो पल ने

वह जन्मों ने ढोया, लिक्खूँ?


अँजुरी-अँजुरी पानी छाना 

फिर भी रेत सँजोया, लिक्खूँ?


साँसों  की नश्वर माला में 

मोती दिव्य पिरोया, लिक्खूँ? 


चमक उठा शुभ नाम तुम्हारा;

मन आँसू से धोया, लिक्खूँ?

                         (2002)