अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है
मैं बहुत फुर्तीला था
बहुत तेज़ दौड़ता था
बहुत उछल कूद करता था
तुमसे देखी नहीं गई
मेरी यह जीवंतता
और तुम ले आए
एक खूबसूरत सा
खूब मज़बूत सा
पिंजरा
सजा दिए उसमें
कई तरह के खाद्य पदार्थ
चिकने और कोमल
सुगंधित और नशीले
महक से जिनकी
फूल उठे मेरे नथुने
फड़कने लगीं मूँछें
खिंचने लगा पूरा शरीर
काले जादू में बँधा सा
जाल अकाट्य था तुम्हारा
मुझे फँसना ही था
मैं फँस गया
तुम्हारी सजाई चीज़ें
मैंने जी भरकर खाईं
परवाह नहीं की
क़ैद हो जाने की
सोचा - पिंजरा है तो क्या
स्वाद भी तो है
स्वाद ही तो रस है
रस ही आनंद
'रसो वै सः'
उदरस्थ करते ही स्वाद को
मेरी पूरी दुनिया ही उलट गई
यह तो मैंने सोचा भी न था
झूठ थी चिकनाई
झूठ थी कोमलता
झूठ थी सुगंध
और झूठ था नशा
सच था केवल ज़हर
केवल विष
जो तुमने मिला दिया था
हर रस में
और अब
तुम देख ही रहे हो
मैं किस तरह छटपटा रहा हूँ
सुस्ती में बदल गई है मेरी फुर्ती
पटकनी खा रही है मेरी दौड़
मूर्छित हो रही है मेरी उछल कूद
मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ
तुम्हारे चेहरे पर
उभर रही है एक क्रूर मुस्कान
तुम देख रहे हो
एक चूहे का
अंतिम नृत्य
बस कुछ ही क्षण में
मैं ठंडा पड़ जाऊँगा
पूँछ से पकड़कर तुम
फेंक दोगे मुझे
बाहर चीखते कव्वों की
दावत के लिए!
<21 सितंबर 2003>
6 टिप्पणियां:
bhav gahre hain apki saral-sahaj kavita ke!
ॠषभ जी, हम तो चूहे को फेंकते थे तो चील लेकर जाती थी। हा हा हाहा। बहुत ही सशक्त रचना है।
@ajit gupta
इस चूहे को कव्वे ले जाने वाले हैं .....अर्थात कम दुर्गत होगी!
@सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
आगमन और टिप्पणी के लिए आभारी हूँ.
और तुम ले आए
एक खूबसूरत सा
खूब मज़बूत सा
पिंजरा
सजा दिए उसमें
कई तरह के खाद्य पदार्थ
चिकने और कोमल
सुगंधित और नशीले
यही तो होगा बाज़ारवाद का परिणाम। सफ़ेद कौवे ले जाएंगे मृत चूहों को :(
उपभोक्तावाद तो क्या उपभोग बल्कि भोग भर काफी है इस तमाम दुर्गत के लिए.
पर भर्तृहरि कह गए हैं न
- धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च!
आत्मगौरव की भावना से रहित केवल भोगने का सुख यही परिणति देता है - साधु !
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