मेरे पिता ने बहुत बार मुझसे बात करनी चाही
मैं भाषाएँ सीखने में व्यस्त थी
कभी सुन न सकी उनका दर्द
बाँट न सकी उनकी चिंता
समझ न सकी उनका मन
आज मेरे पास वक़्त है
पर पिता नहीं रहे
उनकी मेज़ से मिला है एक ख़त
मैं ख़त को पढ़ नहीं सकती
जाने किस भाषा में लिखा है
कोई पंडित भी नहीं पढ़ सका
भटक रही हूँ बदहवास आवाजों के जंगल में
मुझे भूलनी होंगी सारी भाषाएँ
पिता का ख़त पढ़ने की खातिर
3 टिप्पणियां:
पिता का ख़त पढ़ने की खातिर
सुंदर भावाभिव्यक्ति।
बहुत ही भावुक और सुन्दर कविता.
प्रेम और भावुकता की भाषा को तो पढ़ा नहीं जा सकता.... केवल अनुभव किया जा सकता है... समय रहते ॥
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