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रविवार, 7 नवंबर 2010

अबोला

बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे
कान फटे जाते थे
फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना
कभी मुझसे छिपा नहीं रहा
तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं
दिल से सुनता था

बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे
मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद  से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है

2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है
वाह! क्या बात कह दी……………बहुत सुन्दर्।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अच्छी कविता... अच्छे प्रयोग... बधाई स्वीकारें॥


`मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता'

यह तो मेरे लक्षण लगते हैं.. शायद बुढ़ापे की अलामत है :)