बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे
कान फटे जाते थे
फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना
कभी मुझसे छिपा नहीं रहा
तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं
दिल से सुनता था
बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे
मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है
2 टिप्पणियां:
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है
वाह! क्या बात कह दी……………बहुत सुन्दर्।
अच्छी कविता... अच्छे प्रयोग... बधाई स्वीकारें॥
`मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता'
यह तो मेरे लक्षण लगते हैं.. शायद बुढ़ापे की अलामत है :)
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