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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

निकटता

मैं तुम्हारे  निकट आई
कुछ माँगने नहीं
कुछ देने भी नहीं
जीने और चुपचाप बहने

पता ही नहीं चला
कब तुम दाता बन बैठे
और मैं भिखारी

जीवन बेगार में बदल गया
बहाव गंदली झील में
चुप्पी धीरे धीरे उतरती मौत में

6 टिप्‍पणियां:

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती रचना।

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

आभारी हूँ, आदरणीया.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘पता ही नहीं चला
कब तुम दाता बन बैठे
और मैं भिखारी


बढिया पंक्तिया सरजी, सच है पता ही नहीं चलता कि कब आदमी का स्टेटस कैसे बदल जाता है ॥ बधाई स्वीकारें॥

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

sundar bhav...
gazab ki abhivyakti..
man prasann ho gaya.
yahi to hai kavita!

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

प्रसाद जी
झंझट जी

धन्यवाद जी वास्ते प्रोत्साहन जी

Suman ने कहा…

bahut sunder rachna ..........