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रविवार, 12 अगस्त 2012

मृत्यु आती है


मृत्यु आती है
रोज़,
हर पल
अलग अलग भेस में
अलग अलग अंदाज़ में,
खेलती शिकार
करती आखेट.

उस बार वह आई थी
अलस्सुबह.
पेड की कटी शाख से
कूद पड़ी थी बूढ़े सफ़ेद वेताल की तरह
बीच रास्ते
और लाद कर ले गई थी कंधे पर विक्रम को.
लोग कहते रह गए
बस नाक से खून गिरा था,
और तो कोई चोट नहीं.

अगली बार जब वह आई
चुपचाप दबे पाँव पीछे खडी हो गई ठिठुरती सी
ठेलती रही तिल तिल भर धूप की ओर;
और अचानक लगा गई छलांग
पहाड़ी के छज्जे से गहरी खाई में,
बिल्ली ने दांतों में दबोच ली थी गरदन.

अगले दिन वह फिर आई
शेर की तरह ठहरी रही चट्टान पर
कई पहर,
और फिर टूट पड़ी कहर सी ,
एक ही पंजे में नोच ली रगे-जाँ;
एक-एक साँस निचोड़ ली थी पछाड़ पछाड़ कर.

उसका खेल रुकता थोड़े है.
उसने फिर भेस बदला,
साँप की तरह रेंगती हुई आई और
सरक गई खून की नालियों में.
पता तो तब चला जब देह लहराई
और सारी नसें तड़तडाकर फटने लगीं.
उसे क्या; वह तो रक्त में स्नान कर अट्टहास करती है
और अचानक चुपचाप ताकने लगती है
अगले शिकार को पगलाई आँखों से.

वह देखो; उसने फिर भेस बदला.
समुद्रतट की रेत को गुदगुदाते हैं अनेक दानवाकार केकड़े
और जकड लेते हैं बहते पानी तक को
रौरव नरक जैसी अपनी कुरूप टांगों में.
उछालें मारता है समुद्र,
चीत्कार करती हैं लहरें;
बडवानल के उदर में घुसते चले जाते हैं
केकड़ों के विषैले नाखून,
और वह करती है ज्वार भाटे के सीने पर
उन्माद से परिपूर्ण तांडव नृत्य
मथती हुई दसों दिशाओं को.

पर वह थकती नहीं,
वह छकती भी नहीं;
फिर आती है,
फिर फिर आती है.
अभी उस शाम वह फिर आई थी
बहुत शांत
बहुत शालीन.
कोने में ठहरी रही
प्यार से मुस्कराती;

इतने ही प्यार से आई हो उतर कर
तो स्वागत है तुम्हारा.
मैं बाँहें पसार कर आवाहन करता हूँ
अपने पिता और पितामह की तरह.
आओ, हे मृत्यु, आओ;
मुझे अपनी गोदी में समा लो -
चिर शांत क्रोड़ में;
और मुक्त कर दो!
तुम्ही तो माँ हो
मुझे फिर फिर जनोगी!!

3 टिप्‍पणियां:

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

बहुत ही गंभीर रचना. मेरी जानकारी के अनुसार इतनी गहराई से, अलग-अलग चित्रों में मृत्यु पर कविता हिंदी साहित्य में शायद ही किसी ने लिखी होगी. जीवन के शाश्वत सत्य पर एक अच्छी रचना.

arpanadipti ने कहा…

man ko jhakjhor dene vaalee kavita

Asha Joglekar ने कहा…

मृत्यु तेरे कितने रूप ।