शाम थी कैसी कि नटखट बादलों में हम घिरे थे।
सब दिशाएँ खो गई थीं, भटकते यूँ ही फिरे थे।।
याद हैं फिसलन भरी क्या चीड़ की वे पत्तियाँ?
एक-दूजे को संभाले दूर तक जिनसे गिरे थे।।
सब दिशाएँ खो गई थीं, भटकते यूँ ही फिरे थे।।
याद हैं फिसलन भरी क्या चीड़ की वे पत्तियाँ?
एक-दूजे को संभाले दूर तक जिनसे गिरे थे।।
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