मुझे भी बालिग़ होना है ....
''मैं सत्पथ पर रहूँगी ,
या कुपथ पर चलूंगी,
यह जिम्मेदारी भी अपने ही सिर पर लेना चाहती हूँ.
मैं बालिग़ हूँ
और
अपना नफ़ा - नुकसान देख सकती हूँ.
आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती,
क्योंकि रक्षा का कार्य
पराधीनता के सिवा कुछ नहीं.''
या कुपथ पर चलूंगी,
यह जिम्मेदारी भी अपने ही सिर पर लेना चाहती हूँ.
मैं बालिग़ हूँ
और
अपना नफ़ा - नुकसान देख सकती हूँ.
आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती,
क्योंकि रक्षा का कार्य
पराधीनता के सिवा कुछ नहीं.''
यह क्या बोले जा रही हूँ मैं ?
हाँ, याद आया 'प्रेमचंद' की 'सोफिया'
मिली थी 'रंगभूमि' में.
बस उसी की कही
जबान पर चढ़ गई !
हाँ, याद आया 'प्रेमचंद' की 'सोफिया'
मिली थी 'रंगभूमि' में.
बस उसी की कही
जबान पर चढ़ गई !
सोफिया का तो पता नहीं
पर मुझे यह क्यों लगता है कि
उन्होंने सारी शिक्षाएं मेरे लिए ही बनाई हैं,
सारे उपदेश मेरे लिए हैं.
वे शिक्षित करके मुझे भली लडकी बनाना चाहते हैं.
पर मुझे यह क्यों लगता है कि
उन्होंने सारी शिक्षाएं मेरे लिए ही बनाई हैं,
सारे उपदेश मेरे लिए हैं.
वे शिक्षित करके मुझे भली लडकी बनाना चाहते हैं.
भली लडकी
जो सिर झुकाए उनके पीछे चले,
उनके संरक्षण में रहे .
वे मेरी रक्षा के लिए
प्राण निछावर कर देंगे
अगर मैं उनके पथ को एकमात्र पथ समझूं..
जो सिर झुकाए उनके पीछे चले,
उनके संरक्षण में रहे .
वे मेरी रक्षा के लिए
प्राण निछावर कर देंगे
अगर मैं उनके पथ को एकमात्र पथ समझूं..
सत्पथ हो या कुपथ
मैं अब अपने आप चुनूंगी अपना रास्ता
और वे मुझे स्वेच्छाचारिणी घोषित कर देंगे,
मैं दृढ़ता से चलूंगी अपने चुने रास्ते पर
और वे मुझे अपने घर से निकाल देंगे.
चलेंगे चालें
तरह तरह की-
मैं आ जाऊं वापस उनकी सुरक्षा में,
उनके संरक्षण में,
उनकी ठोकरों में.
मैं अब अपने आप चुनूंगी अपना रास्ता
और वे मुझे स्वेच्छाचारिणी घोषित कर देंगे,
मैं दृढ़ता से चलूंगी अपने चुने रास्ते पर
और वे मुझे अपने घर से निकाल देंगे.
चलेंगे चालें
तरह तरह की-
मैं आ जाऊं वापस उनकी सुरक्षा में,
उनके संरक्षण में,
उनकी ठोकरों में.
पर सोफिया की तरह
मुझे भी समझ आने लगा है
सुरक्षा का अर्थ!
मुझे भी समझ आने लगा है
सुरक्षा का अर्थ!
जिसे सुरक्षा की गारंटी दी जा रही है,
उसे स्वतंत्रता की ज़रूरत ही क्या है
चिंता मुक्त हो कर
विवेक खोकर
व्यक्तित्व खोकर
अपना आपा खोकर-
सुरक्षा का सुख लेते रहना है बस!
उसे स्वतंत्रता की ज़रूरत ही क्या है
चिंता मुक्त हो कर
विवेक खोकर
व्यक्तित्व खोकर
अपना आपा खोकर-
सुरक्षा का सुख लेते रहना है बस!
सौदा तो अच्छा है!
पर बहुत महंगा सौदा है.
ठीक कहती है सोफिया
सही चुनूँ या ग़लत
पर चुनूँ तो सही!
सही चुनूँ या ग़लत
पर चुनूँ तो सही!
मुझे ख़ुद उठानी है अपनी ज़िम्मेदारी!
हजारों साल हो गए
मैं अभी तक कमसिन हूँ;
मुझे भी बालिग़ होना है,
अपने फैसले ख़ुद करने है,
हानि लाभ की पहचान करनी है.
मैं अभी तक कमसिन हूँ;
मुझे भी बालिग़ होना है,
अपने फैसले ख़ुद करने है,
हानि लाभ की पहचान करनी है.
वे कहते हैं,
तुम लड़की हो!
तुम क्या फैसले लोगी?
तुम क्या पहचान करोगी?
तुम लड़की हो!
तुम क्या फैसले लोगी?
तुम क्या पहचान करोगी?
मेरी समझ में नहीं आता:
वे तो जन्म से पुरुष हैं
फिर उन्होंने आज तक तमाम ग़लत फैसले क्यों लिए?
आज तक अपने पराये तक को नहीं पहचाना?
उन्हीं के फैसलों ने तो
धरती को युद्ध और आतंक से भर छोड़ा है!
विस्फोटों से दहलती हुई यह दुनिया उन्ही की बनाई है न?
वे न तो अस्पताल को बख्शते हैं
न पाठशाला को.
वे आज भी जंगली हैं?
औरतों को उनसे आज भी वैसे ही डरना होता है
जैसे भेडियों और लक्कड़बग्घों से?
वे तो जन्म से पुरुष हैं
फिर उन्होंने आज तक तमाम ग़लत फैसले क्यों लिए?
आज तक अपने पराये तक को नहीं पहचाना?
उन्हीं के फैसलों ने तो
धरती को युद्ध और आतंक से भर छोड़ा है!
विस्फोटों से दहलती हुई यह दुनिया उन्ही की बनाई है न?
वे न तो अस्पताल को बख्शते हैं
न पाठशाला को.
वे आज भी जंगली हैं?
औरतों को उनसे आज भी वैसे ही डरना होता है
जैसे भेडियों और लक्कड़बग्घों से?
अभी उनका सभ्य होना शेष है.
जब तक वे सभ्य नहीं होते -
युद्ध होते रहेंगे,
आतंक बना रहेगा,
लोग मरते रहेंगे,
बच्चे रोते रहेंगे,
औरतें चीखती रहेंगी !
जब तक वे सभ्य नहीं होते -
युद्ध होते रहेंगे,
आतंक बना रहेगा,
लोग मरते रहेंगे,
बच्चे रोते रहेंगे,
औरतें चीखती रहेंगी !
बस इसीलिए
वे औरतों को बनाए रखते है कमसिन
और करते रहते हैं रक्षा,
मेरी नहीं,
अपने जंगलीपन की!
वे औरतों को बनाए रखते है कमसिन
और करते रहते हैं रक्षा,
मेरी नहीं,
अपने जंगलीपन की!
हजारों साल हो गए,
वे अभी तक जंगली हैं ;
पर मैं अब बालिग़ हो गई हूँ!!
वे अभी तक जंगली हैं ;
पर मैं अब बालिग़ हो गई हूँ!!
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
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