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युद्धजीवी प्रभु के नाम
ओ नृशंस प्रभु!
क्यों किया तूने ऐसा
कि अपनी ही संतान को
बलिपशु बना डाला
अपनी अधिकार-लिप्सा के हेतु ?
क्यों अपना शासन बनाए रखने को
क्षमा कर दिया तूने
सहोदर के हत्यारे काइन को ?
क्यों दिया तूने
पाप को संरक्षण
अपनी महत्ता को स्थिर रखने हेतु ?
क्यों की तूने गंधक
और आग की वर्षा
हरे भरे सदोम और अमोरा नगरों पर
अपना अस्तित्व मनवाने को ?
क्यों लड़ा दिया तूने
आदमी की एक नस्ल को
आदमी की दूसरी नस्ल से
इस तरह कि
एक नस्ल मनाती रही
फसह का पर्व - निरपेक्ष रहकर
और दूसरी नस्ल के
सब जेठे बेटे और जानवर भी मार डाले तूने
व्यक्तिगत प्रतिशोध में ?
क्यों विवश किया मूसा को तूने
कि वह समुद्र जल में डुबो दे
उस देश को
जो तेरे समक्ष नहीं झुका
और जिसने नहीं किया तेरा स्तुति गान ?
मनुष्यता के विरुद्ध
इतने अपराधों के स्रष्टा ओ नृशंस !
बड़ा नकली लगता है जब पर्वत शिखर पर से
तू देता है प्रेम का संदेश
अपने किसी पुत्र के मुँह से।।
प्रतिशोध
खिलौनों में बम हैं
ट्रांजिस्टर, कार और साइकिल
सभी में बम हैं
अंधा प्रतिशोध
लेता है मनुष्य
मनुष्य ही से
और बो देता है बीज
कुछ और नए
मनुष्य बमों के।।
अवशेषरिश्ते सब टूट गए
खून के,
दूध के
और परस्पर झूठे पानी के।
ठेके ही बाकी हैंकुर्सी के,
धर्म के,
माफिया गिरोहों के।।ž
सपना
मेरे पिता नेदेखा था
एक सपना
कि हवाएँ आज़ाद होंगी ....
और वे हो गईं
फिर मैंनेदेखा एक सपना
कि
महक बसेगी
मेरी साँसों में ....
और मेरे नथुने
भिड़ गए आपस में
मुझे ही कुरुक्षेत्र बनाकर
अब मेरा बेटादेख रहा है एक सपना
कि हज़ार गुलाब फिर चटखेंगे
पर उसे क्या मालूम कि
अब की बार
गुलाबों में
महक नहीं होगी !
छिपकली
चिपक गई हैमेरे दिमाग में
एक प्रागैतिहासिक छिपकली
निरंतर फड़फड़ा रही हैअपने लंबे मैले पंख
और प्रदूषित होती जा रही हैपीयूष रस से भरी मेरी डल झील
गोता खोर तलाशेंगे
कुछ दिन बाद
इसके तल में
आक्सीजनवाही मछलियों के
जीवाश्म !
स्नो फॉल
लटकती रहती हैंफि़रन की खाली बाँहें
हाथ सटाए रखते हैं
काँगड़ी को पेट से
राख में दबे अंगारे
झुलसा देते हैं
नर्म गुलाबी जि़ल्द को
सख्त काली होने तक
और फुहिया बर्फकुछ और सफेद हो जाती है
स्याह और सुर्ख पर गिरकर !
अनुपस्थित
शहतूत की पत्ती पररेशम के कीड़े हैं
भारत के स्विट्ज़रलैंड में
बकरी हैं, भेड़ें हैं
गूजर हैं, बकरवाल हैं
पंडित हैं, शेख हैं
सेव और बादाम हैं
पश्मीना है और केसर भी
चश्मों का जल आज भी
पहले सा ठंडा और मीठा है
पर एक चीज हैजो सिरे से गायब है -
एक उन्मुक्त संगीत
जो दम तोड़ रहा है
`पाकिस्तान जि़ंदाबाद` के
बोझ तले !
बदबू
केसर की क्यारी मेंकितने बरस से
लगातार बढ़ती ही जाती है
लाशों की बदबू
घटती नहीं
बर्फ का शिवलिंगहर बरस आप से आप बढ़ता है
और घट भी जाता है
आप से आप।
धर्मयुद्ध जारी है
शहर पगला गया हैखुद को काट रहा है खुद ही,
जिस बस में बैठा है उसी को फूँक रहा है,
अपनी पिस्तौल
अपनी ही छाती पर तान रहा है,
पैट्रोल और माचिस लेकर
दौड़ रहा है एक बच्चे के पीछे,
बच्चे को शरण नहीं मिलतीमंदिर-मिस्जद-गुरुद्वारे में,
न पुलिस मुख्यालय में,
न संसद-सचिवालय में,
विवश बच्चा एक बार फिर सड़क पर है,
दिशाहीन दौड़ता है लाचारपीछे-पीछे आता है शहर पैट्रोल और माचिस लिए,
आगे खड़ा है कर्फ्यू हाथों में स्टेनगन थामे
फ्लैगमार्च करता हुआ,
चूहा-बिल्ली का खेल जारी हैकुंभ नहान चल रहा है
प्रकाश पर्व का जुलूस बढ़ा चला आ रहा है
अजान गूँज रही है
गिरजे की घंटियाँ
उत्पन्न कर रही हैं फायर ब्रिगेड का भ्रम,
बच्चा बीच राह में मूर्छित पड़ा हैत्रिशूल और तलवार लेकर
उसकी छाती के पवित्र कुरुक्षेत्र में
शहर धर्मयुद्ध कर रहा है
अपने आप से कि
बच्चे को बचाना है विधर्मियों के स्पर्श से,
बच्चा दम तोड़ रहा है औरधर्मयुद्ध जारी है
पाखंड के समूचे तामझाम के साथ।।
ओ मेरे महाप्रभुओ
ओ मेरे महाप्रभुओ!बहुत हो चुकी लीला,
अब तो अपना जाल समेटो।
बीच आँगन में
काँटेदार तारों की बाड़ लगवा दी तुमने,
मेरे जौ-मटर के खेत रौंदकर
बंदूकों के पेड़ उगवा दिए तुमने,
मेरे पिता के अस्थिकलश को
गीदड़ों के हवाले कर दिया,
मेरी माँ के शव को
भेडियों से नुचवा दिया,
फाँसी पर लटका चुके हो
चुन-चुन कर मेरे एक-एक साथी को, मेरी पत्नी समेत,
गुडि़या में बारूद भरकर
परखचे उड़ा दिए तुमने मेरी बेटी के;
और
वह बालक जिसका खून
अभी तक चीख रहा है तुम्हारे
पैरों के समीप वाली बलिवेदी पर,
वह मेरा इकलौता बेटा था,
अब कोई नहीं बचासिवा मेरे!
और मैं बलि देने नहीं
बलि लेने आया हूँ!
लो, तोड़ दिए मैंनेसब वर्ग तुम्हारे बनाए हुए,
लो, तिलांजलि देता हूँ
संप्रदायों को तुम्हारे रचे हुए,
यह लो, उतारता हूँ यज्ञोपवीत,
यह कड़ा और कंघी भी फेंकता हूँ ,
छोड़ता हूँ पाँचों वक़्त की नमाज़,
क्रॉस को झोंकता हूँ चूल्हे में,
मिटा रहा हूँ ब्राह्मण - भंगी का भेद
खंडित करता हूँ रोटी - बेटी के प्रतिबंध
और
लो, उतरता हूँ अखाड़े में
निहत्था
तुम्हारे साथ जूझने को
निर्णायक द्वंद्वयुद्ध में।
सुनो महाप्रभुओ !मुझे नहीं अब तुम्हारी ज़रूरत
मैं हूँ स्वयं संप्रभु
और खड़ा हूँ
तुम्हारी समस्त आज्ञाओं के विरुद्ध
यह घोषणापत्र लेकर कि
सभी महाप्रभु खाली कर दें मेरी धरतीमुझे उगाना है एक जातिहीन मनुष्य
धर्मों से परे !
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रविवार, 20 दिसंबर 2009
आतंक : दस कविताएँ
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