घर बसे हैं
तोड़ने की साजिशें हैं
हर तरफ़,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
हर तरफ़,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
भींत, ओटे
जो खड़े करते रहे
पीढियों से हम;
तानते तंबू रहे
औ' सुरक्षा के लिए
चिक डालते;
जो खड़े करते रहे
पीढियों से हम;
तानते तंबू रहे
औ' सुरक्षा के लिए
चिक डालते;
एक अपनापन
छतों सा-
छतरियों सा-
शीश पर धारे
युगों से चल रहे;
झोंपड़ी में-
छप्परों में-
जिन दियों की
टिमटिमाती रोशनी में
जन्म से
सपने हमारे पल रहे;
छप्परों में-
जिन दियों की
टिमटिमाती रोशनी में
जन्म से
सपने हमारे पल रहे;
लाख झंझा-
सौ झकोरे-
आँधियाँ तूफान कितने
टूटते हैं रोज उन पर
पश्चिमी नभ से से उमड़कर !
दानवों के दंश कितने
तृणावर्तों में हँसे हैं,
है बहुत अचरज
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
घर नहीं दीवार, ओटे,
घर नहीं तंबू,
घर नहीं घूंघट;
घर नहीं छत,
घर न छतरी;
झोंपड़ी भी घर नहीं है,
घर नहीं छप्पर .
घर नहीं तंबू,
घर नहीं घूंघट;
घर नहीं छत,
घर न छतरी;
झोंपड़ी भी घर नहीं है,
घर नहीं छप्पर .
तोड़ दो दीवार, ओटे,
फाड़ दो तंबू,
जला दो घूंघटों को,
छत गिरा दो,
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले.
फाड़ दो तंबू,
जला दो घूंघटों को,
छत गिरा दो,
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले.
घोंसले उजडें भले ही,
घर नहीं ऐसे उजड़ते.
घर नहीं ऐसे उजड़ते.
अक्षयवटों जैसे हमारे घर
हमारे अस्तित्व में
गहरे धँसे हैं,
है नहीं अचरज
कि अब भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
हमारे अस्तित्व में
गहरे धँसे हैं,
है नहीं अचरज
कि अब भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
घर अडिग विश्वास,
निश्छल स्नेह है घर.
दादियों औ' नानियों की आँख में
तैरते सपने हमारे घर.
घर पिता का है पसीना,
घर बहन की राखियाँ हैं,
भाइयों की बाँह पर
ये घर खड़े हैं;
पत्नियों की माँग में
ये घर जड़े हैं.
निश्छल स्नेह है घर.
दादियों औ' नानियों की आँख में
तैरते सपने हमारे घर.
घर पिता का है पसीना,
घर बहन की राखियाँ हैं,
भाइयों की बाँह पर
ये घर खड़े हैं;
पत्नियों की माँग में
ये घर जड़े हैं.
आपसी सद्भाव, माँ की
मुठियों में
घर कसे हैं,
क्यों भला अचरज
कि अब तक
घर बसे हैं-
घर बचे हैं. o
मुठियों में
घर कसे हैं,
क्यों भला अचरज
कि अब तक
घर बसे हैं-
घर बचे हैं. o
Homes - live
Though conspire they a lot
everywhere everytime
Yet ,wonder! homes stay
Homes live.
We have been placing
walls,enclosures and shades
From ages.
And tents we put
and draw curtains for
Safety.
There is something
you may call it
togetherness
like roof on the head-protection
like umbrella- shelter
from ages- go on.
In the huts
In the tents
In the enclosures
solitary lamps twinkle
the dreams of generations .
A thousand clouds
millions of tempests
numberless storms
Fresh from the windy west
try to uproot them.
The poisonous laughter
of the demons surpass
Wonder! Homes stay
Homes live.
Home is neither shade nor walls
Nor tent nor hut
Nor veil nor umbrella
Nor roof nor anything
Home is not the name of shade .
nor what we have over our head.
dismantle every wall
hut , roof ,umbrella,shade or anything
to protect.
You can do it
But this is the way to destroy nests
or the place we live
And what you call house.
Home You can not uproot
Homes cannot be
they are deep-rooted Akshayavat.
Home is unstintited faith
Home is selflessness
placed in the eyes of our
mothers and grannies like dreams .
Home is the sweat of father and the
love -knot of sisters
On the arms of brothers.
Home is deeply knitted in the hair-partings
Of a homely wife.
Togetherness ,oneness,the unbreakable bond
is firmly placed in the tender fist of the mother.
that is home .
Do You still wonder?
Why homes stay ,homes live .
*Translated by
Dr. Gopal Sharma
2 टिप्पणियां:
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