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रविवार, 20 दिसंबर 2009

यो मे प्रतिबलो लोके

तुम तो त्रिलोक के स्वामी हो. तुमने देवों को जीता है.
सब रत्न तुम्हारे चरणों में.
सब पर अधिकार तुम्हारा है.
तुमने ऐरावत छीन लिया
बिगडे घोड़ों को साधा है.
धरती पर्वत आकाश वायु
पाताल सिंधु को बाँधा है.

तुमने मुझको भी रत्न कहा .
चाहा किरीट में जड़ लोगे.
जीवित ज्वाला की लहरों को
अपनी मुट्ठी में कर लोगे.

मुझको यह प्रभुता रास नहीं.
मैं रत्न नहीं! मैं दास नहीं!

तेरा स्वभाव तो प्रभुता का .
'ना' सुनने का अभ्यास नहीं.

तेरी लोलुपता आहत हो
मेरे केशों की ओर बढ़ी.
तू मुझे धरा पर खींचेगा,
मेरी मर्यादा नोंचेगा;
था ज्ञात मुझे तू इसी तरह
वश में करने की सोचेगा.

पर मेरे केश नहीं आते
तेरे जैसों की मुट्ठी में.
मैं तिरस्कार का कालकूट
पी चुकी प्रथम ही घुट्टी में.
मैं कोमल मधुमय दीपशिखा
आशीष बरसने वाली हूँ.
अपनी करुणा की किरणों से
रसधार सरसने वाली हूँ.
पर मैं ही ज्वालामुखी शिखर.
मैं ही श्मसान का आर्तनाद.
प्राणों में झंझावात लिए
मैं प्रलय निशा का शंखनाद.
तू मुझको जान नहीं पाया.
कोई न अभी तक भी जाना.
मैं वस्तु नहीं, जीवित प्राणी.
पर तूने मुझे भोग्य माना.

बस इसीलिए तो मुझको यह
संग्राम जीतना ही होगा.
जो सचमुच मेरा प्रतिबल हो
वह प्रणय खोजना ही होगा!

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