[डायरी , ११ नवम्बर १९८१ / खतौली ] @ १ @ छुआ चांदनी ने जभी गात क्वांरा, नहाने लगी रूप में यामिनी. कहीं जो अधर पर खिली रातरानी, मचलने लगी अभ्र में दामिनी.. चितवनों से निहारा ,सखी,वंक जो, उषा सांझ पलकों की अनुगामिनी. तुम गईं द्वार से घूंघटा खींचकर, यों तपस्वी जपे कामिनी कामिनी .. @ २ @ खिला गुलमुहर जब कभी द्वार मेरे, याद तेरी अचानक मुझे आ गई . किसी वृक्ष पर जो दिखा नाम तेरा, ज़िंदगी ने कहा ज़िंदगी पा गई .. आईने ने कभी आँख मारी अगर, आँख छवि में तुम्हारी ही भरमा गई. चीर कर दुपहरी छांह ऐसे घिरी, चूनरी ज्यों तुम्हारी लहर छा गई.. @ ३ @ नीम की ओट में जो कई खेल खेले, चुभे पाँव में शूल बनकर बहुत दिन. कामना के युवा पाहुने जो कुंवारे , बसे प्राण में भूल बनकर बहुत दिन.. कंटकों के , तृणों के ,उगे चिह्न सारे, खिले देह में फूल बनकर बहुत दिन. स्वप्न वे सब सलोने कसम वायदे वे, उडे राह में धूल बनकर बहुत दिन .. |
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रविवार, 20 दिसंबर 2009
छुआ चाँदनी ने
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